*गंगा तट पर*
विरक्तों का प्रधान क्षेत्र सदा से ही गंगातट रहा है| भारतवर्ष के सभी प्रांतों के विरक्त सनातन काल से श्री भागीरथी के अंचल में आकर ही अपने हृदय की तपन शांत करते रहे हैं | महापुरुषों ने गंगाजल को साक्षात ब्रम्हद्रव कहा है | गंगाजल में हृदय को शांत करने की सदा से ही एक अपूर्व शक्ति विराजमान है | श्री गंगा की कलकल ध्वनि में जिज्ञासुओं को अपने प्राणआराध्य का ही संदेश सुनाई देता है | अतः हमारे चरित नायक श्री महाराज जी ने भी दो-चार वर्ष पंजाब में विचरण कर के अब गंगा तट पर ही चलने का विचार किया |
जिला बुलंदशहर में अनूप शहर से प्राय: तीन मील दक्षिण की और भेरिया नाम का एक छोटा सा गांव है
इससे प्रायः आधे मील की दूरी पर गंगा जी के किनारे एक ऊंचे टीले पर बंगाली बाबा नाम से प्रसिद्ध एक वृद्ध महात्मा रहते थे | इनका योगपट्ट था स्वामी श्री रामानंद जी पुरी | उस समय इस ओर वह सर्वमान्य संत थे | बड़े ही निष्ठावान तपस्वी विद्वान और विरक्त महात्मा थे | इनके कारण और भी कुछ संत वहां फूस की कुटिया में निवास करते थे | पक्की कुटी श्री बंगाली बाबा की ही थी | समय-समय पर आस-पास के गांव से बाबा के पास कुछ गृहस्थ भक्त भी आते रहते थे | इन भक्तों में गवां के लाला कुंदन लाल जी अच्छे साधु सेवी थे | इस समय इस समय वे भी बंगाली बाबा जी महाराज की कुटी पर आए हुए थे | बाबा के पास इस समय जो संत उपस्थित थे उनमें अच्युत मुनि जी प्रधान थे | पीछे इन्ही की कृपा से यह स्थान भृगुक्षेत्र नाम से एक अच्छा आश्रम बन गया है | संवत 1965 या 66 की बात है संभवत: कार्तिक का महीना था बंगाली बाबा की कुटी के सामने ही गंगा जी के किनारे नीम के चबूतरे पर सिद्धासन लगाएं एक महापुरुष विराजमान हैं | लाला कुंदनलाल जी को दूर से ही आपके दर्शन हुए | आप के अद्भुत तेज और प्रशांत भाव को देखकर वह मुग्ध हो गए और समीप जाकर आपको प्रणाम किया | देखा कि आपके पास एक कमंडल मात्र है शरीर में एक लंबा कुर्ता है तथा एक-दो अंगोछे भी रखे हुए हैं शरीर लंबा और सुडौल है वर्ण अत्यंत गौर है उसमें अत्यंत दिव्य तेज है मुख्य मंडल लालिमा से सुशोभित है ऊंची नासिका है भुजाएं जानु पर्यंत लंबी हैं तथा नासिकाग्र दृष्टि है | आप अत्यंत शांत संकोची और मितभाषी जान पड़ते हैं | संभवत: रात्रि को ही आप आ गए हैं और सो कर उठने पर अभी तक ध्यान में बैठे हुए हैं |
लाला जी ने जाकर प्रणाम किया और चंचल सुभाव वाले पुरुषों की तरह गई प्रश्न भी किए उत्तर बहुत संक्षेप में मिला परंतु उन शब्दों की मधुरिमा से लाला जी का चित्त बहुत आकर्षित हुआ| लाला जी ने आपसे प्रार्थना की कि आज यही भिक्षा करें और कुछ दिनों तक यही रहने की कृपा करें | आपने धीमें से कह दिया अच्छा | बस फिर सोच स्नान आदि से निवृत्त होकर 9:00 बजे के लगभग आप वृद्ध बंगाली बाबा के पास गए और उन्हें प्रणाम करके एक ओर सिद्धासन लगा कर बैठ गए | इतने में ही लाला जी ने कहा महाराज भिक्षा तैयार है सुनकर आप उठे और उसी चबूतरे पर जा बैठे लालाजी एक थाली में कुछ मीठा और साक दाल रोटी आदि जो कुछ बना था लगाकर बड़ी श्रद्धा से वहीं ले गए आपने जितना आवश्यक था रख लिया है और बाकी लौटा दिया | और सब कुछ मिला कर बड़ी शांति से धीरे-धीरे भोजन किया | तदनंतर आचमन करके उठे और थाली लाला कुंदन लाल जी ने उठा ली | आप को भोजन करते देख कर भी लाला जी बड़े मुग्ध हुए | आप का चलना फिरना उठना बैठना सोना बोलना स्नान करना कुल्ला करना आदि सभी क्रियाओं में एक विचित्र मोहकता मर्यादा और शांति का अनुभव होता था | आपके प्रत्येक व्यवहार में गीता में कहे हुए स्थितप्रज्ञ भक्त अथवा गुणातीत के लक्षण तथा भागवत में कहे हुए भागवतोत्तम के लक्षण प्रकट होते थे |
आप जब पहली बार श्री बंगाली बाबा जी महाराज के पास जा कर बैठे तो उसी समय उनका चित्त आप की ओर आकर्षित हो गया था वह अपने शिष्य स्वामी श्री शास्त्रानंद जी से बोले भाई यह तो कोई अलौकिक महापुरुष हैं | या कोई दिव्य महाशक्ति ही हैं जो साधु के रूप में छिपकर आई है इनकी नासिका से दिव्य गंध निकलती है तथा इन्हें देखकर चित्त बलात्कार से आकर्षित हो जाता है | इनकी सेवा का पूरा ध्यान रखना बड़े विरक्त जान पड़ते हैं इनके पास कोई वस्त्र भी नहीं है तुम जाकर युक्ति से पूछ लेना कुंदनलाल का स्वभाव चंचल है उसके कहने से वह स्वीकार नहीं करेंगे |
स्वामी शास्त्रानंद जी तो पहले से ही आकर्षित थे वह स्वयं ही आपसे मिलना चाहते थे | उन्होंने जब से आपको देखा है तभी से उनका चित्त बेचैन है | स्वामी जी उड़ीसा देश के रत्न है जैसा आपका नाम है वैसे ही गुण भी है इस समय आपकी भक्ति संयम और गुरुनिष्ठा आदर्श थी तथा स्वभाव बड़ा ही कोमल उदार और सरल था इन दिनों श्री बंगाली बाबा का यस सौरभ सब ओर फैला हुआ था आपके पास बड़े बड़े आदमी तरह-तरह की भेंट लेकर आते रहते थे किंतु अत्यंत वृद्ध होने के कारण बाबा तो केवल आधा सेर दूध और एक छटांक धान की खीलें ही खाते थे | स्वामी शास्त्र आनंद जी भी इतने विरक्त थे की भेंट की सामग्री में से कुछ भी नहीं छूते थे आप बाबा की सेवा से निवृत होकर माधूकरी भिक्षा के लिए आस-पास के गांव में जाते थे और वहां से जो रूखी-सूखी भिक्षा मिलती लाकर गुरुदेव के आगे रख देते गुरुदेव उसे छू देते थे तब उनकी आज्ञा से ही आप उसी रूखी-सूखी भिक्षा को पा लेते | 24 घंटो में बस यही आप का भोजन था | बंगाली बाबा का माधूकरी भिक्षा पर बहुत जोर था वह कहा करते थे –
_”भिक्षा हारो फलाहारो भिक्षा नैव परिग्रह: |
सदन्न वा कदन्न वा सोमा पानम दिने दिने |??
इसलिए भेंट में जो कुछ भी माल आता था वह तो आने जाने वाले गृहस्थों बालकों और साधुओं को बटता रहता था | बाबा कहा करते थे कि यह जो भेंट का माल है यह सब सकामी पुरुष लाते हैं साधकों के लिए तो यह विष के समान है | साधुओं के पास आने जाने वाले जिज्ञासु और भक्त जो अपने घर की भी पूंजी गंवा बैठते हैं उसका प्रधान कारण यही है कि वह फिर सकामी पुरुषों के द्वारा भेंट किए जाने वाले माल में से खाने पीने में ही लगे रहते हैं अतः जो साधुओं के द्वारा कल्याण चाहे वह उसके यहां की कोई वस्तु ग्रहण न करें | भले ही भंगी चमार आदि से भिक्षा मांग ले | इसी से हमारे चरित नायक श्री महाराज जी भी कहा करते हैं कि साधु होने की अपेक्षा तो यही अच्छा है कि अपनी मेहनत मजदूरी करके पेट भरे जितना बन सके साधुओं कीजिए सेवा करें और जितना समय मिले उसमें भजन करें | साधु बाबा बनकर मुफ्त के माल उड़ाने से तो बुद्धि नष्ट हो जाती है भाई इस समय घोर कलिकाल है इसमें न शरीर में समर्थ है ना ब्रम्हचर्य का बल है और न बुद्धिही शुद्ध है अतः भिक्षा का रुखा सूखा अन्ना खाकर भजन करना तो साक्षात सूली पर चढ़ना ही है |मैंने गंगा तट के और भी कई विरक्त महात्माओं के मुख से सुना है |
भाई इस समय हठधर्मी से कुछ बस नहीं चलता हम लोगों ने जवानी के जोश में कहो अथवा वैराग्य के नशे में कुछ पर्वाह नहीं कि उसी का परिणाम है कि आज वृद्धावस्था में हम लोगों को विवस होकर कुटिया तथा दुनिया का सहारा लेना पड़ता है | अतः इस समय तो यही अच्छा है कि शुद्ध जीविका द्वारा जो कुछ प्राप्त हो उसी अन्न से यथाशक्ति अतिथियों का सत्कार करते हुए युक्त आहार विहार पूर्वक जीवन व्यतीत करें | तथा जैसा बन सके भगवान का भजन करें | सर्व साधारण के लिए तो ऐसा करना अच्छा है भगवान की विशेष विभूतियों के विषय में हम कुछ नहीं कहते उनकी वह जाने या उनके भगवान जाने”
अस्तु स्वामी शास्त्रनंदनंद जी कुछ फल लेकर हमारे श्री महाराज जी के पास आए उन्हें आते देख महाराज जी खड़े हो गए और दोनों ही एक-दूसरे को बड़ी नम्रता से प्रणाम करके बैठ गए | कुछ समय तक दोनों ही चुप रहे | फिर एक दूसरे का कुछ परिचय प्राप्त कर आपसे वस्त्र आदि की सेवा के विषय में बातचीत कर स्वामी जी चले गए | उसी दिन से यह दोनों महापुरुष एक दूसरे पर मुग्ध हो गए और सदा के लिए परमार्थिक मित्र बन गए | स्वामी जी ने आपसे अपनी कुटी में चलने के लिए प्रार्थना भी की किंतु आपने यही ठीक रहेंगे ऐसा कह कर टाल दिया | कुछ दिनों तक तो आप आश्रम पर ही एक समय भिक्षा करते रहे | किंतु फिर स्वामी जी के साथ गांव में मधुकरी के लिए जाने लगे | इससे लाला कुंदन लाल जी को बहुत दुख हुआ अतः उनके विशेष आग्रह से आप उनसे भी भिक्षा ले लिया करते थे अथवा रात्रि को वे दूध भेज दिया करते थे | कुछ दिनों बाद लालाजी ने खबर भेजकर गवा से अपने भतीजे बाबू हीरालाल को बुलवाया | उन्होंने आ कर पहली बार श्री महाराज जी का दर्शन किया और वह आपको देखते ही रह गए उनका चित्त आपकी ओर इतना आकर्षित हुआ कि वह आपे में न रहे | और वहीं रुक गए फिर कई दिन रुक कर उन्होंने आप का सत्संग प्राप्त किया | और आपसे गवां पधारने की विनम्र प्रार्थना की | किंतु आपने कोई उत्तर न दिया तब उन्होंने बंगाली बाबा से प्रार्थना की कि आप इन्हें गवां भिजवा दें बाबा वृद्ध थे श्री महाराज जी भी इनमे श्रद्धा रखते थे अतः जब उन्होंने कहा कि हीरा आपको गवां ले जाने को कहता है क्या जाओगे? तो आप बोले जैसी आज्ञा हो बाबा ने कहा अच्छा गवां भी देख लो अच्छी जगह है वहां के लोग भी साधू सेवी हैं | यदि चित्त लगे तो कुछ दिन रह जाना नहीं तो फिर चले आना | बाबा की इस प्रकार कहने पर आपने गवाह जाना स्वीकार कर लिया बाबू जी ने गमा से सवारी बंगाली लाला कुंदन लाल ने अपने हाथ से सींकर और रंग कर एक खद्दर की चादर भेंट की जो बहुत आग्रह करने [14/4 5:04 pm] रघुनाथ चरण रज भिक्षुक: *गंगा तट पर*
विरक्तों का प्रधान क्षेत्र सदा से ही गंगातट रहा है| भारतवर्ष के सभी प्रांतों के विरक्त सनातन काल से श्री भागीरथी के अंचल में आकर ही अपने हृदय की तपन शांत करते रहे हैं | महापुरुषों ने गंगाजल को साक्षात ब्रम्हद्रव कहा है | गंगाजल में हृदय को शांत करने की सदा से ही एक अपूर्व शक्ति विराजमान है | श्री गंगा की कलकल ध्वनि में जिज्ञासुओं को अपने प्राणआराध्य का ही संदेश सुनाई देता है | अतः हमारे चरित नायक श्री महाराज जी ने भी दो-चार वर्ष पंजाब में विचरण कर के अब गंगा तट पर ही चलने का विचार किया |
जिला बुलंदशहर में अनूप शहर से प्राय: तीन मील दक्षिण की और भेरिया नाम का एक छोटा सा गांव है
इससे प्रायः आधे मील की दूरी पर गंगा जी के किनारे एक ऊंचे टीले पर बंगाली बाबा नाम से प्रसिद्ध एक वृद्ध महात्मा रहते थे | इनका योगपट्ट था स्वामी श्री रामानंद जी पुरी | उस समय इस ओर वह सर्वमान्य संत थे | बड़े ही निष्ठावान तपस्वी विद्वान और विरक्त महात्मा थे | इनके कारण और भी कुछ संत वहां फूस की कुटिया में निवास करते थे | पक्की कुटी श्री बंगाली बाबा की ही थी | समय-समय पर आस-पास के गांव से बाबा के पास कुछ गृहस्थ भक्त भी आते रहते थे | इन भक्तों में गवां के लाला कुंदन लाल जी अच्छे साधु सेवी थे | इस समय इस समय वे भी बंगाली बाबा जी महाराज की कुटी पर आए हुए थे | बाबा के पास इस समय जो संत उपस्थित थे उनमें अच्युत मुनि जी प्रधान थे | पीछे इन्ही की कृपा से यह स्थान भृगुक्षेत्र नाम से एक अच्छा आश्रम बन गया है | संवत 1965 या 66 की बात है संभवत: कार्तिक का महीना था बंगाली बाबा की कुटी के सामने ही गंगा जी के किनारे नीम के चबूतरे पर सिद्धासन लगाएं एक महापुरुष विराजमान हैं | लाला कुंदनलाल जी को दूर से ही आपके दर्शन हुए | आप के अद्भुत तेज और प्रशांत भाव को देखकर वह मुग्ध हो गए और समीप जाकर आपको प्रणाम किया | देखा कि आपके पास एक कमंडल मात्र है शरीर में एक लंबा कुर्ता है तथा एक-दो अंगोछे भी रखे हुए हैं शरीर लंबा और सुडौल है वर्ण अत्यंत गौर है उसमें अत्यंत दिव्य तेज है मुख्य मंडल लालिमा से सुशोभित है ऊंची नासिका है भुजाएं जानु पर्यंत लंबी हैं तथा नासिकाग्र दृष्टि है | आप अत्यंत शांत संकोची और मितभाषी जान पड़ते हैं | संभवत: रात्रि को ही आप आ गए हैं और सो कर उठने पर अभी तक ध्यान में बैठे हुए हैं |
लाला जी ने जाकर प्रणाम किया और चंचल सुभाव वाले पुरुषों की तरह गई प्रश्न भी किए |
[15/4 11:32 am] रघुनाथ चरण रज भिक्षुक: उत्तर बहुत संक्षेप में मिला परंतु उन शब्दों की मधुरिमा से लाला जी का चित्त बहुत आकर्षित हुआ| लाला जी ने आपसे प्रार्थना की कि आज यही भिक्षा करें और कुछ दिनों तक यही रहने की कृपा करें | आपने धीमें से कह दिया अच्छा | बस फिर सोच स्नान आदि से निवृत्त होकर 9:00 बजे के लगभग आप वृद्ध बंगाली बाबा के पास गए और उन्हें प्रणाम करके एक ओर सिद्धासन लगा कर बैठ गए | इतने में ही लाला जी ने कहा महाराज भिक्षा तैयार है सुनकर आप उठे और उसी चबूतरे पर जा बैठे लालाजी एक थाली में कुछ मीठा और साक दाल रोटी आदि जो कुछ बना था लगाकर बड़ी श्रद्धा से वहीं ले गए आपने जितना आवश्यक था रख लिया है और बाकी लौटा दिया | और सब कुछ मिला कर बड़ी शांति से धीरे-धीरे भोजन किया | तदनंतर आचमन करके उठे और थाली लाला कुंदन लाल जी ने उठा ली | आप को भोजन करते देख कर भी लाला जी बड़े मुग्ध हुए | आप का चलना फिरना उठना बैठना सोना बोलना स्नान करना कुल्ला करना आदि सभी क्रियाओं में एक विचित्र मोहकता मर्यादा और शांति का अनुभव होता था | आपके प्रत्येक व्यवहार में गीता में कहे हुए स्थितप्रज्ञ भक्त अथवा गुणातीत के लक्षण तथा भागवत में कहे हुए भागवतोत्तम के लक्षण प्रकट होते थे |
आप जब पहली बार श्री बंगाली बाबा जी महाराज के पास जा कर बैठे तो उसी समय उनका चित्त आप की ओर आकर्षित हो गया था वह अपने शिष्य स्वामी श्री शास्त्रानंद जी से बोले भाई यह तो कोई अलौकिक महापुरुष हैं | या कोई दिव्य महाशक्ति ही हैं जो साधु के रूप में छिपकर आई है इनकी नासिका से दिव्य गंध निकलती है तथा इन्हें देखकर चित्त बलात्कार से आकर्षित हो जाता है | इनकी सेवा का पूरा ध्यान रखना बड़े विरक्त जान पड़ते हैं इनके पास कोई वस्त्र भी नहीं है तुम जाकर युक्ति से पूछ लेना कुंदनलाल का स्वभाव चंचल है उसके कहने से वह स्वीकार नहीं करेंगे |
स्वामी शास्त्रानंद जी तो पहले से ही आकर्षित थे वह स्वयं ही आपसे मिलना चाहते थे | उन्होंने जब से आपको देखा है तभी से उनका चित्त बेचैन है | स्वामी जी उड़ीसा देश के रत्न है जैसा आपका नाम है वैसे ही गुण भी है इस समय आपकी व्यक्ति संयम और गुरुनिष्ठा आदर्श थी तथा स्वभाव बड़ा ही कोमल उधार और सरल था इन दिनों शिरीष बंगाली बाबा का यस सौरभ सब और फैला हुआ था आपके पास आने को बड़े आदमी तरह-तरह की भेंट लेकर आते रहते थे किंतु अत्यंत बंद होने के कारण बाबा तो केवल आधा सेर दूध और एक छटांक धान की खीलें ही खाते थे | स्वामी शास्त्र आनंद जी भी इतने विरक्त थे की भेंट की सामग्री में से कुछ भी नहीं छूते थे आप बाबा की सेवा से निवृत होकर माधूकरी भिक्षा के लिए आस-पास के गांव में जाते थे और वहां से जो रूखी-सूखी भिक्षा मिलती लाकर गुरुदेव के आगे रख देते गुरुदेव उसे छू देते थे तब उनकी आज्ञा से ही आप उसी रूखी-सूखी भिक्षा को पा लेते | 24 घंटो में बस यही आप का भोजन था | बंगाली बाबा का माधूकरी भिक्षा पर बहुत जोर था वह कहा करते थे –
_”भिक्षा हारो फलाहारो भिक्षा नैव परिग्रह: |
सदन्न वा कदन्न वा सोमा पानम दिने दिने |??
इसलिए भेंट में जो कुछ भी माल आता था वह तो आने जाने वाले गृहस्थों बालकों और साधुओं को बटता रहता था | बाबा कहा करते थे कि यह जो भेंट का माल है यह सब सकामी पुरुष लाते हैं साधकों के लिए तो यह विष के समान है | साधुओं के पास आने जाने वाले जिज्ञासु और भक्त जो अपने घर की भी पूंजी गंवा बैठते हैं उसका प्रधान कारण यही है कि वह फिर बदामी पुरुषों के द्वारा भेंट किए जाने वाले माल में से खाने पीने में ही लगे रहते हैं अतः जो साधुओं के द्वारा कल्याण चाहे वह उसके यहां की कोई वस्तु ग्रहण न करें | भले ही भंगी चमार आदि से भिक्षा मांग ले | इसी से हमारे चरित नायक श्री महाराज जी भी कहा करते हैं कि साधु होने की अपेक्षा तो यही अच्छा है कि अपनी मेहनत मजदूरी करके पेट भरे जितना बन सके साधुओं की सेवा करें और जितना समय मिले उसमें भजन करें | साधु बाबा बनकर मुफ्त के माल उड़ाने से तो बुद्धि नष्ट हो जाती है भाई इस समय घोर कलिकाल है इसमें न शरीर में समर्थ है ना ब्रम्हचर्य का बल है और न बुद्धिही शुद्ध है अतः भिक्षा का रुखा सूखा अन्ना खाकर भजन करना तो साक्षात सूली पर चढ़ना ही है |मैंने गंगा तट के और भी कई विरक्त महात्माओं के मुख से सुना है |
भाई इस समय हठधर्मी से कुछ बस नहीं चलता हम लोगों ने जवानी के जोश में करो अथवा वैराग्य के नशे में कुछ पर्वाह नहीं कि उसी का परिणाम है कि आज वृद्धावस्था में हम लोगों को विवस होकर कुटिया तथा दुनिया का सहारा लेना पड़ता है | अतः इस समय तो यही अच्छा है कि शुद्ध जीविका द्वारा जो कुछ प्राप्त हो उसी अन्न से यथाशक्ति अतिथियों का सत्कार करते हुए युक्त आहार विहार पूर्वक जीवन व्यतीत करें | तथा जैसा बन सके भगवान का भजन करें | सर्व साधारण के लिए तो ऐसा करना अच्छा है भगवान की विशेष विभूतियों के विषय में हम कुछ नहीं कहते उनकी वह जाने या उनके भगवान जाने”
अस्तु स्वामी शास्त्रनंदनंद जी कुछ फल लेकर हमारे श्री महाराज जी के पास आए उन्हें आते देख महाराज जी खड़े हो गए और दोनों ही एक-दूसरे को बड़ी नम्रता से प्रणाम करके बैठ गए | कुछ समय तक दोनों ही चुप रहे | फिर एक दूसरे का कुछ परिचय प्राप्त कर आपसे वस्त्र आदि की सेवा के विषय में बातचीत कर स्वामी जी चले गए | उसी दिन से यह दोनों महापुरुष एक दूसरे पर मुग्ध हो गए और सदा के लिए परमार्थिक मित्र बन गए | स्वामी जी ने आपसे अपनी कुटी में चलने के लिए प्रार्थना भी की किंतु आपने यही ठीक रहेंगे ऐसा कह कर टाल दिया | कुछ दिनों तक तो आप आश्रम पर ही एक समय भिक्षा करते रहे | किंतु फिर स्वामी जी के साथ गांव में मधुकरी के लिए जाने लगे | इससे लाला कुंदन लाल जी को बहुत दुख हुआ अतः उनके विशेष आग्रह से आप उनसे भी भिक्षा ले लिया करते थे अथवा रात्रि को वे दूध भेज दिया करते थे | कुछ दिनों बाद लालाजी ने कब्र भेजकर दवा से अपने भतीजे बाबू हीरालाल को बुलवाया | उन्होंने आ कर पहली बार श्री महाराज जी का दर्शन किया और वह आपको देखते ही रह गए उनका चित्त आपकी ओर इतना आकर्षित हुआ कि वह आपे में न रहे | और वहीं रुक गए फिर कई दिन रुक कर उन्होंने आप का सत्संग प्राप्त किया | और आपसे गवां पधारने की विनम्र प्रार्थना की | किंतु आपने कोई उत्तर न दिया तब उन्होंने बंगाली बाबा से प्रार्थना की कि आप इन्हें गवां भिजवा दें
[ बाबा वृद्ध थे श्री महाराज जी भी इनमे श्रद्धा रखते थे अतः जब उन्होंने कहा कि हीरा आपको गवां ले जाने को कहता है क्या जाओगे? तो आप बोले जैसी आज्ञा हो बाबा ने कहा अच्छा गवां भी देख लो अच्छी जगह है वहां के लोग भी साधू सेवी हैं | यदि चित्त लगे तो कुछ दिन रह जाना नहीं तो फिर चले आना | बाबा के इस प्रकार कहने पर आपने गवा जाना स्वीकार कर लिया बाबू जी ने गवा से सवारी मंगवा ली लाला कुंदनलाल ने अपने हाथ से सींकर और रंग कर एक खद्दर की चादर भेंट की जो बहुत आग्रह करने पर आपने स्वीकार कर ली | दूसरे दिन प्रातः काल उसी घाट से नौका द्वारा गंगा जी पार की उस पार सवारी खड़ी थी | परंतु बहुत आग्रह करने पर भी आप सवारी में न बैठे पैदल ही चल दिए तब संकोचवश बाबूजी भी पैदल ही चलने लगे | हमारे चरित नायक नासिकाग्र दृष्टि रखे बड़ी मस्ती से चल रहे थे ना दाएं देखते थे ना बाएं आपकी स्वाभाविक गति को देखते हुए तो मालूम होता था आप धीरे-धीरे चल रहे हैं परंतु आप की गति इतनी तीव्र थी कि साथ चलने वालों को तो आपके साथ भागना पड़ता था | बस दो ढाई घंटे में ही गंवा पहुंच गए और लाला कुंदन लाल जी के बगीचे में ठहर गए | यहां प्रातः काल से लेकर रात्रि पर्यंत आपका सारा समय ठीक बंधा हुआ था | जो काम जिस समय करने का नियम था उसे ठीक उसी समय करते थे उसमें एक मिनट भी आगे पीछे नहीं होता था प्रातः काल उठ कर वहां से 3 मील दूर गंगा स्नान के लिए जाते थे वहां मोहलनपुर के पंडित हरिप्रसाद जी जो अच्छे विद्वान और भजनआनंदी थे मिलते थे उनके साथ प्राय: नियमपूर्वक भागवत का विचार होता था | उसके बाद प्रायः 9:00 बजे कुटिया पर लौटकर 2 घंटे कथा करते थे फिर भिक्षा के लिए जाते थे उन दिनों आप प्रायः मधुकरी ही करते थे किंतु विशेष आग्रह करने पर सप्ताह में एक दिन किसी का निमंत्रण भी स्वीकार कर लेते थे दोपहर में केवल 15से 20 मिनट आराम करके फिर स्वाध्याय में लग जाते थे फिर 2:00 बजे से 5:00 बजे तक बगीचे में ही कथा होती थी | उस समय के प्रमुख श्रोता बाबू हीरालाल जी पंडित श्री राम जी और महाशय सुखराम गिरी जी थे | उस समय वेदांत और योग के ग्रंथों पर बड़ा गंभीर विचार किया जाता था | हालांकि बाबू श्री हीरालाल जी अभी तक श्री महाराज जी के स्वरुप को पूरी तरह नहीं समझ सके थे वह केवल इतना जानते थे कि यह अंग्रेजी संस्कृत उर्दू और फारसी के अच्छे विद्वान हैं और किसी हद तक अध्यात्मिक स्थिति में भी बड़े चढ़े हैं | अर्थात एक उच्च कोटि के साधक हैं | इतने से ही श्री महाराज जी के चरणो में उनका प्रगाढ़ प्रेम हो गया था | यद्यपि श्री महाराज जी कई बार उपराम हो जाते थे तो भी बाबू जी ने उत्तम सेवा सत्संग प्रेम और समय की पाबंदी आदि गुणों से इन्हें अपने प्रेम पास में बांध लिया था | अतः कोई विचार ना होने पर भी इस बार आप 6 महीने गवां में रहे |
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