15″भक्त वर हुलासी”-
पूज्यपाद श्री हरि बाबा जी महाराज भक्ति पर करके रत्न भक्त वर हुलासी ग्राम वरोरा के रहने वाले थे वह जाति के नाई थे। हुलासी जी गांव में अपनें साधारण कुल के अनुसार उचित जीविका और 10 बीघे जमीन में खेती करके अपने कुटुंब का पालन किया करते थे ब्राह्मण और साधुओं का क्षौर यह प्रायः बिना पैसा लिए ही बनाते थे यही नहीं इसके अतिरिक्त भी अपनी शक्ति के अनुसार साधुओं और ब्राह्मणों की सेवा किया करते थे स्वभाव से हुलासी जी बड़े ही विनई विनम्र और दीन जान पड़ते थे उनकी वाणी बड़ी ही मधुर थी |अपनी सामान्य जीविका से ग्रामउचित भोजन वस्त्र आदि का हुलासी को कोई अभाव नहीं था| गांव के सभी लोग हुलासी से प्रेम किया करते थे हुलासी जी किसी से झूठ किसी भी अवस्था में नहीं बोलते थे उनकी ग्रहणी भी सर्वथा उनके अनुकूल ही थी
हमारे पूज्य पाद श्री श्री 108 श्री हरि बाबा जी महाराज तो उस समय हर किसी से यही कहा करते थे भाई मुझे भक्तों के दर्शन कराओ क्या तुम्हारे गांव में कोई भगवान का भक्त नहीं है? बार-बार ऐसा पूछने पर एक दिन किसी ने एक दिन महाराज जी से हुलासी का नाम ले दिया बस फिर क्या था श्री महाराज जी हुलासी जी के घर जा पहुंचे और भक्त जी भक्त जी कहकर पुकारने लगे। हुलासी जी बेचारे बड़े विनम्र और गरीब आदमी थे जब पुकार सुनकर वह बाहर निकले तो उन्होंने सामने एक तेजस्वी व्यक्तित्व को खड़े पाया उन महापुरुष के तेज मय स्वरूप के दर्शन करके हुलासी जी के हृदय में न जाने कहां से प्रेम और कृतज्ञता बांध तोड़कर उफान लेने लगीं वह श्री महाराज जी के चरणों में गिर पड़े और उनके भक्त जी उच्चारण के कारण द्रवित होकर उनके चरणों में पृथ्वी पर लोटने लगे। श्री महाराज जी ने हुलासी को उठाकर अपने हृदय से लगा लिया परंतु हुलासी तो बेचारे लज्जा से गड़े ही जाते थे
। वह पीछे हट कर रोते हुए कहने लगे महाराज मैं जाति का नाई हूं बहुत गरीब हूं मेरे वस्त्र मैले हैं इनसे बहुत दुर्गंध आती है आप बड़े महापुरुष हैं साक्षात भगवान ही हैं। आप मुझे स्पर्श न करें इस अपराध से मैं मर ही जाऊंगा नाथ| आप मुझे अपराधी न बनाएं ऐसा कहकर वह फिर रोने और पृथ्वी पर लोटनें लगे परंतु श्री महाराज जी ने उनको बलपूर्वक उठाकर दोबारा से अपने हृदय से लगा लिया और कहा-
” *जाति पाति पूछै ना कोई हरि को भजे सो हरि का होई*
*चाण्डालSपि द्विजाच्र्छेष्ठ: कृष्णभक्तिपरायण:।*”
और श्री महाराज जी कहने लगे भैया मुझे तो आज कृष्ण भक्त के दर्शन हो गए इसलिए मैं तो कृतकृत्य हो गया अरे भाई मैं तो नाम मात्र का साधू हूं कृष्ण भक्ति मेरे भीतर नहीं है मैंने सुना है कि कृष्ण भक्त के मुख से सुना हुआ भगवान का नाम हृदय में भक्ति को उदय करता है और कृष्ण भक्त के मुख से सुना हुआ कृष्ण चरित्र भी हृदय में तत्काल श्रीकृष्ण की स्फूर्ति करा देता है इसलिए हे भाई तू मुझे श्री हरि नाम सुना|
हुलासी जी कहने लगे बाबा मुझे मालूम नहीं मैं आपको किस प्रकार श्री हरि का नाम सुनाऊं ।
मैं तो थोड़े से हिंदी के अक्षर पढ़ा हूं तो थोड़ी-थोड़ी तुलसीकृत रामायण पढ़ लेता हूं और बिना स्नान किए भोजन नहीं करता इसके अलावा स्नान करके एक लोटा जल शिवजी पर चढ़ा देता हूं और शिव जी के पास बैठकर ही दो चार मिनट राम नाम सीताराम कह लेता हूं पूर्णिमा और रविवार को गंगा स्नान कर आता हूं एकादशी को अन्न नहीं खाता तथा कोई पंडित जी कथा कहते हैं तो मैं सुन लेता हूं तो महाराज इन्हीं सब बातों को लेकर गांव के लोग हंसी हंसी में मुझको भगत जी कहने लगे हैं। भगवन मुझ में कोई भक्तिभाव नहीं मैं तो बहुत ही तुच्छ और साधारण आदमी हूं। बताइए मैं आपकी क्या सेवा करूं? क्या मैं आपके लिए भोजन बनवा कर लादूं और कुछ तो मेरे घर में है नहीं आप कहें तो चार पैसे की मिठाई दुकान से लाकर दूं। श्री महाराज जी ने बड़े प्रेम से कहा तू केवल मेरा यह कमंडल भर कर ले आ- यही तेरी बड़ी से बड़ी सेवा है इसके सिवा तू दिन में एक बार मुझसे अवश्य मिल लिया कर। मैं प्रातः काल नित्यप्रति पंडित जय शंकर जी के घर पर आया करता हूं और 10:00 बजे तक वही ठहरता हूं वहां तू अवश्य आया कर।
इस पर हुलासी ने श्री महाराज जी के चरण पकड़ लिए और रोने लगे तब श्री महाराज जी ने पूछा ‘क्या चाहता है?
हुलासी जी ने कहा महाराज जी क्या मुझे अपने इस जन्म में प्यारे श्रीकृष्ण के दर्शन हो सकते हैं?
श्री महाराज जी हंसकर कहने लगे वाह यह भी कोई बड़ी बात है मुझे तो तेरे हृदय में अभी भी श्रीकृष्ण दिखाई दे रहे हैं यह कहकर आप वहां से चले गए।
हुलासी बेचारे सीधे-साधे बहुत सरल प्रकृति के व्यक्ति थे छल कपट तो उनमें लेशमात्र भी नहीं था ऐसी ही सरल स्वभाव उनकी स्त्री भी थी। वह सर्वदा स्नान करके ही भोजन बनाया करती थी और अपने पति को भोजन कराए बिना कभी भी अन्न ग्रहण नहीं किया करती थी।
यदि किसी कार्यवश हुलासी जी को बाहर जाना पड़ता तो वह कब तक भूखी ही रहती चाहे तीन-चार दिन ही क्यों न हो जाएं
घर में सदैव बहुत सफाई और पवित्रता रखती थी पत्नी और पति दोनों ही भजन परायण थे रात्रि को सोने से पूर्व हुलासी जी रामायण पढ़ा करते और उनकी स्त्री सुना करती थी
इस प्रकार भगवत चर्चा करते-करते दोनों आनंद से सो जाया करते थे कभी कभी सोते समय लल्लू लाल जी का प्रेम सागर भी पढ़ा करते थे।
परंतु आज तो विशेष बात थी आज दिन भर उनके मन में यह चटपटी लगी रही की श्री महाराज जी ने घर पर आकर स्वयं ही हमें दर्शन दिए हैं और श्याम सुंदर के दर्शनों का संकेत भी दिया है यह हमारे लिए बड़े सौभाग्य की बात है अतः आज हमें श्री श्याम सुंदर के दर्शन अवश्य ही होंगे रात्रि को आज उन्होंने प्रेमसागर ही पड़ा और श्रीकृष्ण प्रेम से विमल हो रोते रोते सो गए सोतेही दोनों ने एक साथ स्वप्न में देखा कि श्री वृंदावन में वृक्ष के तले श्री श्यामसुंदर त्रिभंग ललित गति से खड़े हुए बंसी बजा रहे हैं।
उनका श्री अंग नवीन मेघ के समान श्याम है उस पर रेशमी पीतांबर चमचमाती हुई सौदामिनी की कांति को भी फीकी कर रहा है।
उनके सर पर मनोहर मयूर पिच्छ और गले में इंद्रधनुष के समान सुंदर वैजयंती माला है।
भगवान अपने अमृतवर्षी नैनों से हुलासी की ओर देखकर मंद-मंद मुस्कुरा रहे हैं।
हुलासी का हृदय तो अपने प्राणधन की अद्भुत रुप माधुरी का पान करके मतवाला हो गया और वह श्री चरणों पर लोटने लगा।
प्रभु ने हुलासी को उठाकर अपने हृदय से लगा लिया और कहा मैं तो बहुत दिनों से तुझसे मिलने के लिए तरस रहा था परंतु तूने कभी इच्छा ही नहीं कि अच्छा अब तू वर मांगl
हुलासी ने कहा भगवन में क्या मांगूं यदि आप देना ही चाहते हैं तो यह वर दीजिए कि मुझे आपका दर्शन नित्य होता रहे श्यामसुंदर ने कहा तथास्तु। ऐसा कह कर प्रभु अंतर्ध्यान हो गए और हुलासी और हुलासी की पत्नी सारी रात आनंद के सागर में डूबते उछलते रहे|
दूसरे दिन प्रातः काल उठकर शौच स्नान आदि से निवृत होकर हुलासी जी पंडित जयशंकर जी के घर गए|
साथ में भेंट करने के लिए दो चार आने के बतासे भी लेकर गए।
आज तो उनका रंग ही बदला हुआ था हुलासी जी का सांवला चेहरा एकदम लाली से मिलकर नारंगी के समान चमक रहा था।
हालांकि वह दीनता के कारण अपने भाव छुपाने का प्रयत्न कर रहे थे परंतु भाव तरंग क्या किसी के छिपाए छुप सकते हैं।
श्री महाराज जी के पास पहुंच गए साष्टांग दंडवत प्रणाम करके वह चुपचाप शांतिपूर्वक बैठ गए बेचारे जाति के नापित और गरीब इसलिए पंडित लोगों के भय से दूर ही बैठे|
परंतु वहां बैठते ही अपना होश न रहा भाव समाधि लग गई श्री महाराज जी का दर्शन और भाषण सुनकर प्रेम से पागल ही हो गए नेत्रों से आंसुओं की धाराएं बहने लगी और शरीर में कंपन और रोमांच होने लगे|
फिर भी बहुत प्रयत्नपूर्वक अपने भाव को रोकने का प्रयत्न करते हुए वह सावधान बने रहे।
पंडित जयशंकर जी के यहां का कार्यक्रम समाप्त होने पर जब श्री महाराज जी वहां से गवां को जाने लगे तो उन्होंने हुलासी को हाथ पकड़ कर उठा लिया और अपने साथ लेकर चल दिए|
इधर पंडित जयशंकर और उनके भाई प्रणाम करके वही रह गए वह हुलासी जी की भाव दशा देखकर आपस में विचार करने लगे कि आज इस हुलासी को क्या हो गया कहीं यह पागल तो नहीं हो गया या फिर इसे भूत लग गया है या यह कोई नशा पिए हुए हैं lतब उनमें सबसे छोटे नित्यानंद जी ने कहा नहीं भाई ऐसी बात नहीं है ऐसा होता तो इस की ऐसी प्रेम मय अवस्था क्यों होती तथा श्री स्वामी जी उसका हाथ पकड़कर उसे क्यों ले जाते!|
मुझे तो यह श्री स्वामीजी का ही कोई चमत्कार जान पड़ता है l यह हुलासी तो पहले से ही बहुत अच्छा आदमी और भक्त है संभव है भगवान की कोई विशेष कृपा हो गई होl भगवान के यहां जाति-पांति का कोई विचार नहीं वह तो भक्ति पर ही रीझ जाते हैंl
श्री महाराज जी हुलासी को हाथ पकड़कर लिए चले जा रहे हैं उनके एक और जौहरीलाल हैं दूसरी और हेतरामl जब बरोरा से कुछ दूर निकल आए तब मंद मंद मुस्कुराते हुए हुलासी बोले कहो भाई क्या बात हैl पर आज हुलासी के मुंह से बोल नहीं फूटता वह तो श्री महाराज जी के चरणों में गिर पड़े और चरण पकड़ कर फूट फूट कर जार जार रोने लगेl
श्री महाराज जी हुलासी की प्रेमविव्हल दशा देखकर जोर-जोर से हंसने लगे और बोले अरे हेतराम हुलासी को संभाल देख यह तो पागल हो गया है पूछ तो इसने क्या देखा हैl श्री महाराज जी को हंसते हुए देखकर हुलासी जीतो प्रेम और कृतज्ञता से पागल ही हो गए और भूमि पर लोट लोटकर जोर जोर से हंसनें लगे|
अद्भुत आनंद प्रेम और कृतज्ञता के एहसास से उनका मुख लाल हो गया और नेत्रों की पुतलियां ऊपर को चढ़ गईl जब हुलासी हेतराम के काबू में नहीं आए तब श्री महाराज जी ने स्वयं ही जैसे तैसे उन्हें सावधान कियाl
*मन में लागी चटपटी कब निरखूं घनश्याम।*
*नारायण भूल्यौ सबै खानपान विश्राम।*
*मृदु मुस्क्यान निहारि कै धीर धरत है कौन।*
*नारायण तन कै तजै कै बौरा कै मौन ।*
अब श्री महाराज जी हुलासी के सर पर हाथ फेरते हुए कहने लगे क्यों हुलासी ठीक-ठीक बता तूने क्या देखा हैl
तब हुलासी जी ने जैसे तैसे रात को श्री श्याम सुंदर के दर्शन वाली घटना सुनाई और सुनाते-सुनाते पुन: विभोर हो कर रोने लगे।
इस पर श्री महाराज जी तो ठहाका लगा कर हंसने लगे और बोले अरे हेतराम इसको संभाल यह तो सचमुच पागल हो गया हैl
और फिर जैसे तैसे हुलासी को संभाल कर बोले भाई अपने श्यामसुंदर से आज यह पूछना कि क्या हमें भी उन के दर्शन होंगेl बस यह कहकर सभी को विदा कर दिया और स्वयं तेजी से गवां की ओर चले गए।
हुलासी के साथ श्री महाराज जी के नित्य इसी प्रकार के खेल हुआ करते थे। अब तो हुलासी जी की अवस्था उत्तरोत्तर बढ़ने लगीl
कभी तो गोपी भाव से भावित होकर मधुर रस का आस्वादन करते कभी सखा भाव से सख्य का अनुभव करते और कभी दास्य या वात्सल्य रस से अभिभूत होकर उस का आनंद लेते थेl सचमुच यह कोई उच्च कोटि के महापुरुष ही थे यह भी इनका सौभाग्य ही रहा कि एक दीन हीन नापित के घर जन्म लियाl
क्योंकि भक्ति महारानी बड़ी ही सुकुमारी है जहां विद्या धन बल जाति या यौवन के गर्व रूपी कंटक रहते हैं वह भक्ति महारानी कभी नहीं जाती।
यह तो शांत विनम्र गर्व रहित दीनातिदीन भावों से भरे हुए हृदय को ही अपना धाम बनाती हैं।
और यह सभी बातें हुलासी जी मैं तो स्वभाव से ही थीं। अतः उन के हृदय में श्री भक्ति महारानी अपने प्राण नाथ प्रेम मूर्ति श्री श्याम सुंदर के साथ बिहार करने लगीं।
जिस प्रकार बाजीगर अपने जमूरे के द्वारा खेल दिखा दिखा कर लोगों को मोहित करता है उसी प्रकार श्री महाराज जी की प्रेम लीलाएं भी हुलासी के द्वारा आरंभ हुईl फिर धीरे धीरे जगत में उनका प्रसार हुआl जिस प्रकार गाय अपने बछड़े के निमित्त से ही दुग्ध नीचे उतारती है और इसी से दूसरों को भी दूध का लाभ प्राप्त हो जाता हैl उसी प्रकार श्री भगवान भी अपने नित्य लीला परिकरों के साथ इस धराधाम पर अवतीर्ण होते हैं।
और उन्हीं के द्वारा अपनें गूढातिगूढ़ रहस्यौ का जगत में विस्तार करते हैं। जगत के प्राणी अपनी-अपनी श्रद्धा और भावना के अनुसार उन रहस्यौ को हृदयंगम करते हैं और अपने-अपने भाव के अनुसार ही उनसे लाभ उठाते हैंl बस सगुण भगवान की लीलाओं का यही तात्पर्य है बेचारे सामान्य जीव तो भगवान के दिव्यातिदिव्य रस को हृदय में स्वयं धारण करने में भी असमर्थ हैं। इसलिए नित्य परिकरों के द्वारा ही इस रस का विकास होता हैl श्री भगवान जहां कहीं भी जिस किसी भी रूप में अवतार लेते हैं वहां उनके नाम धाम और नित्य परिकर भी साथ ही आया करते हैं।
वह किसी भी देश या रूप में छुपे हो भगवान स्वयं ही आकर उन्हें ढूंढ लेते हैंl अथवा यह स्वयं ही अपने प्रभु से आकर्षित होकर चले आते हैंl महाराज जी स्वयम कहा करते थे हैं कि गुरु और शिष्य का संबंध भी कई जन्मों का निश्चित होता है जिस गुरु के द्वारा शिष्य का जन्म जिस समय और जिस देश में कल्याण होना निश्चित होता है उसके द्वारा वही और उस समय होता हैl
गुरु शिष्य का संबंध बहुत ही गूढ है यदि इसका ठीक निर्वाह हो जाए तो एक क्षण में ही चिज्जड़ ग्रंथि टूट जाती है और सदा के लिए शिष्य का जीव भाव नष्ट हो कर उसे ब्रह्मत्व प्राप्त हो जाता हैl हमारे श्री महाराजजी तो सोSहम भाव की अपेक्षा दासोSहम में भगवान का दास हूं ऐसे ही भाव को विशेष आदर देते हैंl इस विषय में अपनी वर्धा की घटना के प्रसंग में श्री महाराज जी ने स्वयं ही बताया था कि पहले में ब्राम्ही स्थिति के नित्य सुख में मग्न रहता थाl उसी समय वहां कीर्तन में अकस्मात मेरी विचित्र अवस्था हुई मेरा सोSहम भाव दासोSहम भाव में बदल गया और ऐसी मस्ती चढ़ी कि मुझे कुछ भी होश न रहाl उस समय ऐसी तन्मयता हुई कि न जाने क्या-क्या आवेश हुए श्री राम कृष्ण आदि अवतारों के तथा नाम धाम और लीला इन भगवत स्वरूपों के सब रहस्य मेरे हृदय में स्पष्ट दिखाई देने लगे।
*उस समय मुझे स्पष्ट अनुभव हुआ की दास्य साख्य वात्सल्य और माधुर्य भावों के द्वारा सगुण ब्रह्म की लीलाओं का अनुभव होना ब्राम्ही स्थिति से आगे की बात हैl*
वैष्णव शास्त्रों में तो रस के विकास का क्रम भी यही है पहले शांत रस और फिर भक्ति के दास्य सख्य वात्सल्य और माधुर्य इन रसों का क्रम से अनुभव होता है मेरे विचार से तो वेदांतियों का सगुण ब्रह्म खंडन और वैष्णवौं का निर्गुण खंडन बिना अनुभव के केवल बुद्धि का विलास मात्र है वास्तव में तो दोनों एक ही हैं तथा *ज्ञान और भक्ति में कोई भेद नहीं है|*
किसी भी सच्चे ज्ञानी से भक्ति के रहस्य छिपे नहीं रह सकते और कोई भी सच्चा भक्त अज्ञानी नहीं रह सकताl भक्त और ज्ञानियों का वितंडा तो उनकी नासमझी ही है शास्त्रों में जो कहीं कहीं विरोध सा प्रतीत होता है वह भी वस्तुत: विरोध के लिए नहीं है उस का तात्पर्य केवल अपनी अपनी निष्ठा की परिपक्वता में ही हैl हमारे प्राचीन आचार्यों की यह शैली है कि वह जिस समय जहां जिस विषय का वर्णन करते हैं वह उसी की सबसे अधिक महिमा बताते हैंl मेरे विचार से तो भक्ति और ज्ञान सिद्धांत में ही नहीं साधन काल में भी एक हो सकते हैं यह ऐसे रहस्य की बात है जो शब्दों द्वारा नहीं बताई जा सकती केवल अनुभवगम्य है|
वास्तव में बात तो यह है कि जैसे भी हो वैसे त्रिगुणमई माया से ऊपर उठना होगा फिर चाहे ज्ञान से साधन श्रवण मनन निदिध्यासन के द्वारा संसार का बाध करके उठो चाहे श्रवणादिक नवधा भक्ति के द्वारा सर्वत्र अपने इष्ट का दर्शन करके उठोl
अपने लक्ष्य को चाहे महान से महान बनाओ चाहे अणु से अणु बात एक ही है| फिर पूर्णता होने पर तो सारा भेद अपने आप ही खुल जाएगा रास्ते भिन्न हैं गंतव्य स्थान तो एक ही है साधनों को भले ही भिन्न-भिन्न मान लो साध्य तो एक ही है गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं
*अगुणहिं सगुणहिं नहीं कछु भेदा उभय हरहिं भवसंभव खेदा।।*
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