जन्म और बाल्यावस्था
आपके पिता श्री प्रताप सिंह जी गांव में गरवाल में पटवारी थे और यही अपने परिवार सहित रहा करते थे| संवत 1940 की बात है वैशाख का महीना था आपकी माताजी बाहर सोई हुई थी कि इन्हें दिव्य गंभीर शब्द सुनाई दिया उन्होंने सुना मैंने तुम्हारे पुरखों को धनुष और पुस्तक दी थी अब मैं स्वयं तुम्हारे गर्भ से जन्म धारण करूंगा | सुनते ही माताजी एकदम चौक कर जग उठी और उनके नेत्र आकाश की ओर लग गए अकस्मात सुनसान रात्रि में उन्हें एक दिव्य तेज दिखाई दिया जो धीरे-धीरे उन्हीं की ओर आ रहा था देख कर मैं बहुत घबराई इसी समय आकाशवाणी हुई घबराओ मत मैं तुम्हारी सब प्रकार से रक्षा करूंगा | इससे उन्हें धैर्य बना वह दिव्य चिन्मय प्रकाश एक मूर्त रूप में परिणित हो गया उन्होंने देखा वह तो साक्षात श्री रघुनाथ जी हैं बस देखते ही देखते वह मूर्ति उनके हृदय में प्रवेश कर गई और वह अचेत हो गई | ठीक उसी समय श्री प्रताप सिंह जी को भी स्वप्नावस्था में ऐसा ही अनुभव हुआ भगवद इच्छा से उसी समय माता जी ने आपको गर्व में धारण किया | उसी समय से माताजी के शरीर में एक अद्भुत तेज दिखाई देने लगा और उसमें उत्तरोत्तर वृद्धि होने लगी गर्भावस्था में जो तरह तरह के विकार हुआ करते हैं इस बार भी कुछ भी नहीं हुए | चित्त में दिनोंदिन उत्साह और आनंद की वृद्धि होने लगी आखिर संवत 1941 के फाल्गुन मास की शुक्ला 14 आई | उस दिन ठीक सायंकाल में चंद्रोदय के समय पर प्रायः 11 माह गर्भ में रहकर एक अद्भुत बालक का जन्म हुआ | इस कुसुम सुकुमार शिशु का दिव्य कलेवर कनक कमनीय कांति से सुशोभित था इसके सिर पर सुंदर सुनहरे घुंगराले केश थे जो ठीक बीच में मांग छोड़कर मानो कंघी से सवारे हुए थे | इसके बिंबाफल के समान अरुण अधरओष्ठ के ऊपर सुंदर नुकीली नासिका सुकचंचु को लजाने वाली थी | ऐसे अलौकिक शिशु को प्राप्त कर के माता-पिता तो धन्य हुए ही पड़ोसी पड़ोसी भी एक अद्भुत उल्लास में छक गए | जन्म के समय सभी को एक दिव्य गंध का अनुभव हुआ | बालक माता पिता और भाई बहनों की गोद में बड़े स्नेह से पलने लगा | सभी के नेत्र और चित्त इस नवजात शिशु पर लगे रहते थे | नामकरण संस्कार होने पर यही हमारे दीवान सिंह जी हुए | धीरे धीरे दीवान सिंह जी ने शैशव से बाल्यावस्था में प्रवेश किया | अब तक तो इनके रूप लावण्य और शैशव सुलभ माधुर्य ने ही लोगों को आकर्षित किया हुआ था | किंतु अब इनका सरल और संकोची स्वभाव भी सब को मुग्ध करने लगा आप सारे परिवार के ही अत्यंत लाडले थे | माता जी को तो केवल दूध पिलाने के समय ही आपको गोद में लेने का अवसर मिलता था | आपके परिवार में साधू सेवा के प्रति तो स्वाभाविक रुचि थी ही अतः इस समय समय पर कोई संत आते ही रहते थे | गांव में जो भी संत आते पहले इन्हीं चे यहां भिक्षा करते थे | माता-पिता ने इन्हें संतो को प्रणाम याद करने की शिक्षा दी | संत जन्मदिन के रूप लावण्य और सौशील्याद गुणों को देख कर मुग्ध हो जाते थे | घर में सभी लोग ध्यान भजन करने वाले थे उनकी देखा देखी 3–4 वर्ष की अवस्था से ही आप आसन लगाकर नेत्र मूंदे ध्यान करने की मुद्रा में बैठने लगे | बस होनहार बिरवान के होत चीकने पात वाली कहावत चरितार्थ हो गई | यह हजरत बैठते तो खेल मात्र में ही ध्यान करने किंतु इन्हें बैठते ही समाधि हो जाती थी | फिर तो अनेक यत्न करने पर ही इन्हें चेत होता था | अन्य बालकों की तरह इन में बालोचितचापल्य नाम को भी नहीं था ध्यान समाधि में बैठना ही इनका खेल था जब उनके मन में आता अड़ोस पड़ोस के बालकों को लेकर ध्यान करने लगते उस समय जो बालक साथ बैठते बेभी समाधिस्थ हो जाते ऐसा जान पड़ता मानो सनकादिकों की ही मंडली बैठी है | | उस अवस्था में यदि कोई बालक आप को छू लेता तो वह तत्काल अचेत होकर पृथ्वी पर गिर जाता | यदि किसी व्यक्ति का मन भजन में न लगे तो वह उन्हें अपनी गोद में लेकर बैठता बस इसी से उसका चित्त स्थिर हो जाता | सारे गांव में यह बात प्रसिद्ध थी सब लोग यही कहते थे कि यह तो सरदार साहब के घर में कोई महापुरुष प्रगट हुआ है | इस प्रकार स्वभाव से ही लोगों का आकर्षण इनकी ओर बढ़ने लगा | यदि कोई व्यक्ति सकाम भाव से कहीं जाता तो पहले इन के दर्शन करता इससे प्राय: सर्वदा ही लोगों की कामना पूर्ति हो जाती थी | यह पहले लिखा जा चुका है कि इनके पिता जी गांव में गरवाल में पटवारी थे वह गांव होशियारपुर से प्रायः 18 कोस दूर है | वहां रहकर बच्चों की शिक्षा दीक्षा का समुचित प्रबंध होना संभव नहीं था अतः सरदार सिंह जी ने होशियारपुर के समीप प्रेम गढ़ में एक मकान लिया और वहां अपने परिवार को रखकर अपने बच्चों की शिक्षा का उचित प्रबंध किया | आप के पुत्रों में सबसे बड़े इंद्रजीत सिंह और नगीना सिंह जी को तो पढ़ने लिखने में विशेष रूचि नहीं हुई अतः वे तो पैतृक गांव गंधवाल में ही रहकर खेती का काम करने लगे शेष पुत्रों ने अच्छी उच्च कोटि की शिक्षा प्राप्त की | दीवान सिंह जी की आरंभिक और माध्यमिक शिक्षा होशियारपुर में ही हुई | पढ़ने लिखने में आपकी बुद्धि बड़ी कुशाग्र थी आप मैं बालोचित चापल्य का उस समय भी अत्यंत अभाव था | आप बड़े ही संकोची लज्जाशील मितभाषी विनई और समय का सदुपयोग करने वाले थे | किसी से भी आप कभी व्यर्थ बात नहीं करते थे अपने कर्तव्य और वचन का पालन भी आप पूर्ण तत्परता से करते थे | आप जिस काम को अपने हाथों में लेते थे वह छोटा हो या बड़ा उसे पूर्णतया दत्तचित्त होकर करते थे | और जिस समय पूर्ण करने का वचन दे देते थे उसे उसी समय पूरा कर देते थे | कभी-कभी तो कई दिनों का काम कुछ घंटों में ही कर डालते थे आप सब लोगों की सब प्रकार की सेवा करने को तैयार रहते थे किंतु अपनी किसी से भी कोई सेवा नहीं कराते थे | कोई छोटा हो या बड़ा पहले स्वयं ही प्रणाम कर लेते थे | अपने माता पिता तथा भाइयों के आप अत्यंत अनुगत रहते थे और कभी उनके सामने जवाब नहीं देते थे यह तो हमने इस समय भी प्रत्यक्ष देखा है कि अपने बड़े भाइयों के सामने आप मुंह खोलकर नहीं बोलते और न कभी उनसे आंख ही मिलाते हैं | सदा ही नीची दृष्टि रखते हैं | आपके भ्राता सहपाठी तथा छोटे बड़े सभी का कहना है कि हमने आपको क्रोध करते कभी नहीं देखा | बाल ब्रहमचारी रहने और विवाह न करने साधु बनने का निश्चय तो आपको बचपन से ही था यह बातें कभी-कभी प्रसंगवश अपने साथियों से कह भी देते थे | होशियारपुर के रायबहादुर कुंदन लाल जी एडवोकेट आपके समवयस्क और सहपाठी थे | वह आपकी अध्ययन काल की बड़ी विचित्र बातें सुनाया करते थे और आप के स्वभाव की प्रशंसा करते हुए कहा करते थे कि आपके अध्यापक भी आपको कोई होनहार महापुरुष मानते थे | एक बार श्री महाराज जी ने इन से संबंध रखने वाली एक घटना बताई थी उससे अपने साथियों के प्रति आपकी गहरी सहानुभूति का परिचय मिलता है
|परीक्षा के दिन थे रात्रि में यह दोनों मित्र साथ साथ पढ़ा करते थे रात के 11:00 बजे पर पाठ समाप्त होता तो दोनों मित्र अपने-अपने घर जाने को तैयार होते दोनों के घरों में प्राय: एक मील की दूरी थी चलते समय विचार करते कि हम तुम्हें पहुंचा आएं तुम्हें डर लगेगा बस दोनों मित्र आपस में बात करते कुंदन लाल जी के घर पहुंचते तो वह कहते अब तुम अकेले कैसे जाओगे चलो हम थोड़ी दूर तक छोड़ आते हैं किंतु फिर बात करते इन्ही के घर पहुंच जाते वहां फिर बड़ी समस्या खड़ी होती इस तरह एक दूसरे को पहुंचाने में सारी रात निकल जाती अथवा दोनों मित्र एक ही जगह सो जाते | अस्तु प्रारंभिक और माध्यमिक शिक्षा होशियारपुर में पूरी कर उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए लाहौर के किसी कॉलेज में भर्ती हुए | वहां इंटरमीडिएट पास कर मेडिकल कॉलेज में भर्ती हो गए किंतु आप को इस भौतिक शरीर का डॉक्टर नहीं बनता बनना था | आपने तो मानव मात्र की आध्यात्मिक चिकित्सा करके उसे भवबंधन से मुक्त कराने के लिए ही इस धराधाम में अवतार लिया था | महामुनि शुकदेव जी की भांति आप जन्म से ही विरक्त थे खेलकूद में कभी आपको रुचि नहीं हुई | बचपन में भी एकांत सेवन और ध्यान समाधि में ही प्रेम रहा | सदगुरुदेव की प्राप्ति भी प्राय: 4 वर्ष की अवस्था में ही हो गई थी| इस प्रकार आरंभ से ही विरक्त की सारी सामग्री जुट गई थी | अतः आप की डॉक्टरी की शिक्षा पूरी न हो सकी बीच में ही आपको उसे नमस्कार करना पड़ा | यह सब बातें आगे के प्रकरणों में लिखी जाएंगी उससे पहले आपके पूज्य श्री गुरुदेव का परिचय दे देना परम आवश्यक है अतः अगले प्रकरणों में उन्हीं की चर्चा की जाती है |
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