बाबूजी
हमारे महाराज जी की इस अवस्था में उनके प्रधान सहयोगी थे बाबू शालग्राम जी| श्री महाराज जी आज तक उनका अत्यंत प्रेम और श्रद्धा से स्मरण करते हैं | यद्यपि वह आजीवन ग्रहस्थ रहे किंतु आपकी दृष्टि में किसी महात्मा से कम नहीं थे| इनके साथ आपका अत्यंत आत्मीयता का संबंध था यहां तक कि जिन्हें विशेष परिचय नहीं था वह तो दोनों को सगे भाई ही समझते थे | आयु मैम बाबूजी आप से बड़े थे अतः आप उनके प्रति जेष्ठ सहोदर साहब भाव रखते थे और वह आपको अपने अनुज की तरह स्नेह करते थे यहां उनका संक्षिप्त में कुछ परिचय दिया जाता है | बाबूजी के एक समवयस्क मित्र थे बाबू भगवान दास इन दोनों का साथ साथ ही श्री गुरुदेव के पास आना जाना आरंभ हुआ था | जिस समय श्री स्वामी जी पंजाब में भ्रमण करते करते पहली बार होशियारपुर पहुंचे और बावलियों पर सूखी चोई के पास आसन किया | तभी दोनों मित्र उनकी सेवा में उपस्थित हुए थे | श्री स्वामी जी के बीज और स्वभाव की चर्चा होशियारपुर मैं सब ओर फैल रही थी लोग कहते थे कि भाई एक ऐसे महात्मा आए हैं जिनके चेहरे से सूर्य के समान प्रकाश की किरणें निकलती है यह बड़े विद्वान और विरक्त है दोनों मित्रों ने भी सुनी और यह घूमते-फिरते श्री स्वामी जी के पास जा पहुंचे | श्री स्वामी जी सिद्धासन से विराजमान थे उन्हें देखते ही यह दंग रह गए बहुत देर तक एक एकटक दृष्टि से देखने के बाद उन्होंने समीप जाकर प्रणाम किया और बैठ गए | श्री स्वामी जी बहुत देर तक चुप रहे और इनके एक-दो प्रश्न करने पर भी नहीं बोले केवल एक दृष्टि उठाकर इनकी ओर देख लिया | यह उस दृष्टि से ही घायल हो गए अब इनकी उत्सुकता बढ़ी और इन्होंने चंचलता छोड़कर बड़े विनम्र भाव से कुछ प्रश्न करने की आज्ञा चाही अब स्वामी जी मुस्कुरा कर बोले भाई पूछो क्या पूछना चाहते हो फिर महाराज जी के साथ इनके इस प्रकार प्रश्न उत्तर हुए-
सच्चा सुख क्या है?
‘ आत्म सुख
‘ उसकी प्राप्ति कैसे हो ?
‘ महापुरुषों की कृपा से
‘ वह कैसे मिले ?
‘ सच्ची श्रद्धा से
‘ श्रद्धा कैसे हो ?
‘ महापुरुषों की सेवा करने से
‘ महापुरुषों का लक्षण क्या है ?
‘ जिनके दर्शन भाषण और सहवास से स्वभाविक ही चित्त एकाग्र हो जाए तथा संसार की विस्मृति होने लगे वही महापुरुष है|’
यह मनचले तो थे ही बेधड़क होकर बोले यह सब लक्षण तो हमें आप में ही दिखते हैं इस पर श्री स्वामी जी ने हंसकर कहा भाई यह तो तुम ही जानो हां तुम लोग अच्छे तो हमें भी लगते हो यदि अवकाश मिले तो कभी कभी आया करो| बस अब क्या था बेचारे दोनों नवयुवक सदा के लिए पकड़े गए बहुत देर तक सत्संग होता रहा इसके बाद श्री स्वामी जी उठ कर झाड़ी की तरफ चले गए और यह दोनों विवश होकर घर लौट आए किंतु जिन का मन तू सदा के लिए श्री स्वामी जी ने छीन लिया था अपने भावी पति को पहली बार देखने पर जैसी दशा नव प्रणयनी की होती है अथवा सद्गुरु के मिलने पर जैसी स्थिति सच्छिष्य की होती है | वही दशा इन दोनों की भी हुई बस उनकी एक नजर से ही उनके हाथ बिक गए—
‘ कृपा होय गुरुदेव की देखत करें निहाल |
और मति पलटे तबहिं कागा होय मराल | |
परंतु एक बात अच्छी थी यह दो थे इसलिए एक दूसरे से अपने मन का भाव कहकर चित्त संभाल लेते थे | यह आपस में श्री स्वामी जी की ही चर्चा करते घर आए और सारी रात उन्हीं की चर्चा होती रही न खाना सुहाता था न सोना और न कोई अन्य बात ही अच्छी लगती थी | दूसरे दिन कुछ प्रसाद लेकर दोनों मित्र स्वामी जी के दर्शनों के लिए गए और बड़े आदर से प्रणाम करके बैठ गए | स्वामी जी अत्यंत प्रसन्न होकर बोले अच्छा तुम लोग आ गए मैं तो तुम्हारी ही प्रतीक्षा में था इस बात से उनके चित्त का उत्साह और भी बढ़ गया फिर श्री स्वामी जी ने कहा ठीक है आज तुम प्रसाद लेकर आए हो देखो साधू के पास खाली हाथ कभी नहीं जाना चाहिए पत्र पुष्प फल जल जो भी बने कुछ भेंट ले कर जाना चाहिए ऐसा करने से तुम भी वहां से खाली हाथ नहीं आओगे | देखो तुम्हारे पास तो ऐसा है ही क्या जो महात्माओं को भेंट करोगे जो कुछ भी ले जाओगे मायिक प्रदार्थ ही होगा परंतु वहां से तुम्हें जो प्रसाद मिलेगा वह तो अलौकिक त्रिगुणातीत दिव्य चिन्मय और अविनाशी होगा अच्छा यह तो बताओ तुम्हारी स्वाभाविक रुचि ज्ञान में है या भक्ति में | बाबूजी भोले भगवन हमें स्वभाविक संस्कार तो वेदांत के ही हैं हमने बचपन से ही अपने माता पिता तथा महापुरुषों से यही सुना है कि आत्मसाक्षात्कार ही जीव का सबसे बड़ा पुरुषार्थ है | सो आप कृपा करके हमें कोई ऐसा उपाय बताइए जिससे जल्दी से जल्दी आत्मसाक्षात्कार हो सके | महाराज अंग्रेजी पढ़ कर हमारे संस्कार बिगड़ गए हैं अतः किसी प्रकार का साधन करने में तो हम नितांत असमर्थ है आप अपनी कृपा से ही हमे आत्मसाक्षात्कार करा दीजिए | यह सुनकर स्वामी जी बोले चिंता न करो जो कुछ होगा स्वयं ही होगा तुम केवल हमारे पास आते रहो फिर आपने अभ्यास में बैठने की कुछ युक्तियां बताईं और कहा तुम थोड़ी थोड़ी देर बैठना आरंभ कर दो | इसी तरह कुछ देर और भी सत्संग होता रहा फिर श्री स्वामी जी पुष्कर झाड़ी की ओर चले गए और यह दोनों मित्र घर लौट आए घर आकर श्री स्वामी जी की आज्ञा अनुसार अभ्यास में बैठे किंतु चित्त विशेष नहीं लगा फिर दोनों ने विचार किया कि कुछ प्रसाद लेकर नित्य प्रति जाया करेंगे और अपने साधन की कमजोरी के विषय में महाराज जी से कुछ नहीं कहेंगे |
अतः दूसरे दिन दोनों मित्र प्रसाद लेकर फिर श्री गुरु चरणों में उपस्थित हुए जाकर प्रणाम किया और प्रसाद सामने रख कर बैठ गए श्री स्वामी जी बहुत देर तक चुप चाप इन की ओर देखते रहे अथवा यूं कहिए कि इस प्रकार इन में शक्ति संचार करते रहे इन्हें भी ऐसा प्रत्यक्ष प्रतीत हुआ कि मानो एक प्रकार की बिजली सी इन के शरीर में दौड़ रही है और प्राणों को उथल पुथल कर रही है | थोड़ी देर पीछे श्री स्वामी जी ने पूछा कहो भाई साधन में मन कैसा लगा यह सुनकर दोनों ने बड़ी प्रसन्नता से कहा महाराज जी जब आपकी इतनी कृपा है तो मन क्यों नहीं लगेगा ऐसा लगा कि हम तो दंग रह गए या सुनकर स्वामी जी ने बड़ी प्रसन्नता प्रकट की |
छुट्टियों के समाप्त होने तक यह इसी प्रकार नित्य जाते रहे प्रसाद कभी बाबू सालगराम जी ले जाते थे और कभी भगवान दास जी हमारे महाराज जी से बाबूजी ने स्वयं कहा था कि यथापि हमारा चित्त साधन में बिल्कुल नहीं लगता था तथापि हम झूठ ही कह दिया करते थे कि खूब लगा इससे श्री स्वामीजी समझते थे कि इन्हें साधन का बड़ा शौक है बस उनके इस संकल्प से कुछ दिनों में हमारा मन ऐसा समाहित होने लगा है कि हम दंग रह गए | इसी प्रकार नित्यप्रति प्रसाद ले जाने का भी श्री स्वामी जी के चित्त पर बड़ा अच्छा असर हुआ वह समझने लगे यह बड़े उदार हैं महापुरुषों का जिस की ओर जैसा विचार हो जाता है वह व्यसन होने पर भी उनके संकल्प के प्रभाव से वैसा ही बन जाता है | या गर्मियों की छुट्टी की बात है उन्होंने ऐसा संकल्प किया था कि इन छुट्टियों में ही हमें आत्मसाक्षात्कार हो जाए किंतु बड़े शौक से दिन रात लगे रहने पर भी इन्हें सफलता न मिली | अब केवल 1 दिन शेष रह गया और साक्षात्कार हुआ नहीं तब तो इन्हें बड़ी निराशा हुई और यह रात को अत्यंत दुखी होकर सोए बस स्वप्न में दोनों मित्रों ने साथ साथ ही देखा कि स्वामी जी आए हैं और कह रहे हैं “लो इसे आत्म साक्षात्कार कहते हैं” इतना सुनना था कि दोनों ही उठकर आसन पर बैठ गए और इनकी वृत्ति एकदम ऐसी चढ़ी कि संसार दृष्टि से उठ गया और सब प्रकार का भेद निवृत होकर चित्त परम तत्व में विलीन हो परम पद की अपरोक्ष अनुभूति हुई जिसके लिए बड़े-बड़े योगी अनेकों जन्म तक प्रयास करते हैं तथा जिसे प्राप्त कर लेने पर फिर और कुछ पाना शेष नहीं रहता | बस फिर क्या था जीवन का प्रवाह ही बदल गया भेद भ्रम सदा के लिए विदा हो गया आप में आप मिल गया आप न रहकर सतगुरु ही रह गए | अथवा गुरु-शिष्य दोनों ही गुम हो गए बस एक अनिर्वचनीय आत्मानंद ही रह गया | बस आनंद की एक अपूर्व पारसी आई जिसमें संसार रूप कूड़ा-कचरा पैकर न जाने कहां चला गया फिर भेद का भेद भी नहीं रहा बस अब जो कुछ भी था वह स्वयं ही था ब्रम्ह ही था उसके विषय में कौन कहे
|
‘भीखा बात अगम्य है कहन सुनन की नाहीं |
कहे सो जाने नहीं जाने सो कहे नहीं | |’
दूसरे दिन मदिरामदांध की भांति अथवा ग्रह ग्रस्त की तरह उन्मत्त से हुए गुरुदेव के दर्शनों को गए वहां जाकर अपने ही अभिन्न रूप श्री गुरुदेव के चरणों में साष्टांग प्रणाम किया और चुपचाप बैठ गए आज और दिनों की तरह चित्त में चंचलता नहीं थी घड़ा पूर्ण हो जाने पर छलकता नहीं बस बैठते ही समाधि वास्तव में तो आज ही आत्मसमर्पण हुआ था यही गुरु शिष्य का सच्चा मिलना था यही सच्ची गुरुदीक्षा थी अपने प्रिय शिष्यों को आप्तछकाम देख संत सतगुरु देव के आनंद का भी पारावार नहीं था न जाने आज उन्हें क्या मिल गया था कृपा के अतिरेक से उनका हृदय भर गया वह भी एक दम समाधिस्त हो गए | इस प्रकार गुरु शिष्य दोनों आनंद का उपभोग करने लगे अंत में जब व्युत्थान हुआ तो श्री गुरुदेव ने उठ कर अपने प्रिय शिष्यों को हृदय से लगा लिया |
छुट्टियां तो समाप्त हो चुकी थी इसलिए श्री महाराज जी ने उनसे कहा अब तुम अपने स्कूल को जाओ | जब तक प्रारब्ध शेष है तब तक ज्ञान को भी सुचारु रुप से व्यवहार में बरतना चाहिए भेद केवल इतना रहता है जैसे कैदी और जेलर रहते हैं तो दोनों ही जेल के भीतर हैं किंतु उन में कैदी बंधन में है और जेलर बंधन मुक्त | इसी तरह तत्वज्ञानी महापुरुष संसार के सारे काम बद्ध पुरुषों की तरह करते हुए भी उनमें आसक्त नहीं होते | बल्कि जल में कमल दल की तरह निर्लिप्त रहकर सब व्यवहार करते हैं | जिस प्रकार माखन स्वभाव से तो दूध में मिला रहता है परंतु जब एक बार दृढ़ पुरुषार्थ करके उसे अलग कर लिया जाता है तो फिर समुद्र में डालने पर भी वह उसमें नहीं मिलता | साथ ही तुम यह मत समझ लेना कि हम कृत कृत्य हो गए अभी तो तुम्हें केवल आत्मसाक्षात्कार हुआ है इस स्थिति की दृढ़ता के और जीवन मुक्ति के विलक्षण आनंद की प्राप्ति के लिए तो तुम्हें चिरकाल तक निरंतर अभ्यास करना होगा | इस भूमिका में आत्मज्ञान तो हो जाता है परंतु इसके पश्चात जो आत्मरति आत्मतृप्ति और आत्मसंतुष्टि की भूमिकाएं हैं उनकी प्राप्ति के लिए तुम्हें अभ्यास करना ही होगा | इन्हें प्राप्त कर लेने पर फिर प्रारब्ध बस तुम गृहस्थ रहना चाहे विरक्त परंतु अब आगे तुम्हें साधन में विशेष कठिनाई नहीं होगी अब तुम जाओ पढ़ाई आरंभ करो जब अवकाश मिले तब हमारे पास हो जाया करना कभी कभी हम ही तुम्हें स्कूल में देख आया करेंगे | किंतु दोनों मित्र घर लौटने के प्रति अनिच्छा प्रगट करने लगे | तब स्वामी जी ने इन्हें समझाया और कहा भाई तुम ऐसा करोगे तो संसारी पुरुष साधुओं से घ्रणा करने लगेंगे और समझेंगे कि इनके पास जो आता है उसी को मूड लेते हैं | इससे उनके परमार्थ पद की हानि होगी और वह साधु निंदा रूप पाप के भागी बनेंगे | हमारा उद्देश्य किसी को साधु बनाना नहीं है तुम जाओ और निर्भयता से संसार में रहकर शुद्ध जीविका से निर्वाह करते हुए आदर्श ग्रहस्थ बनो | हम तुम्हारी सदा रक्षा करेंगे | इस तरह समझा बुझाकर स्वामी जी ने उन्हें घर भेजा और वह पूर्ववत स्कूल में पढ़ने लगे | सद्गुरु की कृपा से दोनों की बुद्धि अत्यंत स्वच्छ हो गई वह पहले से अधिक तत्परता से अध्ययन करने लगे जब अवकाश मिलता तब प्रसाद लेकर श्री स्वामी जी के पास जाते और उनका सत्संग करते वह शहर से अलग पास ही तहसील प्रेम गढ़ के पीछे किसी साधु का एक सामान्य सा आश्रम था उस समय यहां दूर तक जंगल ही था श्री स्वामी जी से प्रार्थना करके उन्हें वह इस आश्रम में ले आए | फिर कुछ भक्तों ने मिलकर एक सुंदर सी कुटिया भी बनवा दी श्री स्वामी जी वृद्ध थे और पहले काफी घूम चुके थे अतः वे अब स्थाई रूप से यही रहने लगे इस तरह और भी कई भक्त उनके पास आने लगे और भजन साधन में लग गए | अब धीरे-धीरे आश्रम भी बनने लगा उस की चारदीवारी बनी तीन चार नए कमरे बने तथा कुए का जीर्णोद्धार हुआ | श्री स्वामी जी को सफाई बहुत पसंद थी वह कहा करते थे सफाई ही खुदाई है अतः सारा आश्रम बहुत ही साफ सुथरा रहता था उसमें वृक्ष तथा फुलवारी भी काफी हो गई थी स्वामी जी महाराज अपने हाथ से वृक्ष लगाते और उन्हें सींचते थे तथा आश्रम में जो नये पुराने भक्त आते थे उन्हें भी प्रधानतया आश्रम की सेवा में ही लगाते थे | इस बार श्री स्वामी जी एक साल या 6 महीने ठहरे इसके पश्चात उनका विचार कुछ बिछड़ने का हुआ जब वे चलने लगे तो सभी भक्त अत्यंत दुखी हुए और रोने लगे | किंतु भगवानदास जी पर अद्वेत का ऐसा रंग चढ़ा हुआ था कि वह इस समय भी हंसते रहे और जाते समय प्रणाम करके बोले महाराज जी हमें तो ऐसा आशीर्वाद दीजिए कि हम आपको भी भूल जाएं | श्री स्वामी जी कुछ नहीं बोले केवल मुस्कुरा दिए किंतु और भक्तों को उनकी यह बात अच्छी नहीं लगी श्री स्वामी जी के चले जाने पर भगवान दास जी की अवस्था इतनी चढ़ी कि वे उसे सहन न कर सके और प्रायः पागल हो गए | उन्हें एक प्रकार का पैसा लगने लगा जब उन्होंने बाबूजी से चर्चा की तो वह हंसने लगे और बोले क्या तुम्हें याद नहीं है श्री महाराज जी कहा करते थे कि जो आनंद हमारे हृदय में है यदि उसकी एक बूंद भी तुम्हें दे दी तो तुम सहन ही नहीं कर पाओगे तुम्हारा हृदय फट जाएगा | यह उसी का परिणाम है तुमसे गुरु अवज्ञा रूप अपराध बन गया है | यह सुनते ही उन्हें अपनी भूल के लिए पश्चाताप होने लगा और वह फूट फूट कर रोने लगे तब बाबूजी ने उन्हें ढांढस बंधाया फिर उन्होंने भयभीत हो अभ्यास में बैठना बंद कर दिया और श्री स्वामी जी की खोज करने लगे बहुत ढूंढने पर पंजाब के किसी स्थान पर उनका पता चला | दोनों मित्र वहां गए और चरणों में पड़कर क्षमा प्रार्थना करी | श्री स्वामी जी ने उन्हें फटकारा और कहा हमने तो पहले ही कहा था कि हमारे आनंद का एक कण भी तुम सहन नहीं कर सकोगे खबरदार अब ऐसी बात मुंह से न निकालना क्षमा प्रार्थना सुनकर जरा हंस दिए और बोले घबराओ मत सब ठीक हो जाएगा इसके बाद उनकी अवस्था परम शांत हो गई | इन दोनों मित्रों में सालगराम जी की अवस्था बहुत चढ़ी हुई थी वह मैट्रिक पास करके दफ्तर में केवल 15 मासिक पर क्लर्क हो गए | बाबूजी जी बड़े ही प्रसन्न वदन शांत उदार और गंभीर प्रकृति के पुरुष थे वह प्राय: हर समय हंसते रहते थे | तथा जब दफ्तर के काम से अवकाश पाते थे तब बाहर जंगल में जाकर ध्यान में बैठ रहते थे अथवा आश्रम में आकर सेवा कार्य में लग जाते थे |
उनके घर के इस्त्री बच्चे भी आश्रम की सब प्रकार की सेवा किया करते थे बाबूजी की गुरुदेव के चरणों में बड़ी श्रद्धा थी वह कहा करते थे भय क्या है जबकि सृष्टि की उत्पत्ति स्थिति और संहार करने वाले सगुण ब्रह्म ही साक्षात श्री गुरुदेव के रूप में नेत्रों के सामने विद्यमान हैं|
रही निर्गुण ब्रह्म की बात सो वह तो हमारा अपना आप ही है इसलिए अब हमें और करना ही क्या है | हमारे श्री महाराजजी सुनाते थे कि एक दिन बाबूजी ने मेरा हाथ पकड़कर कहां कहो स्वामी जी तुम्हारी दृष्टि से संसार में सबसे बड़ा महापुरुष कौन है इस पर मैं तो चुप रह गया फिर भी स्वयं ही बोले सावधान कभी भूल कर भी ऐसा ख्याल मत करना कि अपने गुरुदेव से बढ़कर कोई और महापुरुष क्या ईश्वर भी हो सकता है यह सुनकर मेरा चित्त प्रफुल्लित हो गया मैंने मन ही मन कहा बाबूजी आप धन्य हैं और आपकी श्रद्धा भी धन्य है | उसी के फल स्वरुप उनके स्वार्थ और परमार्थ दोनों ही खूब सधे स्वार्थ की बात यह कि केवल मैट्रिक पास कर के आरंभ में 15 मासिक के नौकर हुए थे तो उन्नत करके डिप्टी कमिश्नर के दफ्तर में हेड क्लर्क हो गए और लगभग 500 मासिक पाने लगे वे इस विषय में स्वयं हंसते हुए कहां करते थे जानते हो इस तरक्की का क्या कारण है यह केवल गुरु चरणों की कृपा है मैं तो दफ्तर में बैठकर भी योग वशिष्ठ पढ़ा करता हूं | मेरी तो निरंतर यही दृष्टि रहती है कि मैं केवल साक्षी मात्र हूं यह काम तो कोई और ही कर रहा है | एक बार हमारे श्री महाराज जी के पास बाबू जी का एक पत्र आया उसमें लिखा था निरंतर आनंद समुद्र उछाल मार रहा है तरंगों की बाढ़ आ कर डुबो रही है यदि कचहरी रूपी मल्लाह ना हो तो बेड़ा गर्क हो जाए | वाह रे मस्ताने दिल जिस परमानंद की एक क्षण अनुभूति पाने के लिए बड़े-बड़े राजे महाराजे भी राजपाट छोड़कर घोर तपस्या करते हैं | तू उसी आनंद समुद्र से चित्त को को निकालकर कचहरी का काम कर रहा है बस कचहरी का काम समाप्त हुआ कि चित का बेड़ा एकदम गर्क| शरीर केवल अभ्यास बस मार्ग में चल रहा है मस्ती में झूमते झामते घर चले जा रहे हैं | घर का सब काम भी इसी प्रकार चलता था महीने की महीने वेतन लाकर धर्म पत्नी को सौंप देते थे फिर कोई मतलब नहीं आश्रम में आने वाले अनेकों सत्संगी इन में बहुत श्रद्धा रखते थे अतः वही घर की सब व्यवस्था करते थे | आपका तो संसार में श्री हरि या गुरुदेव की सेवा ही एकमात्र कार्य रह गया था उनमें भी गुरु सेवा पर ही आपकी विशेष रुचि थी |
हरि सेवा सोलह बरस गुरु सेवा पल चार |
तो भी नहीं बराबरी वेदों किया विचार | |
गुरु को तजि हरिसेव कभी नहीं कीजिए |
बेमुख को नहीं ठौर नरक में दीजिए | |
हरि रूठे कछु डर नहीं तू भी दे छिटकाय |
गुरु को राखो शीश पर सब विधि करें सहाय | |
बलिहारी गुरु आपने तन मन सदके जाव |
जीव ब्रम्ह दिन में कियो पाई भूली ठाँव |
बाबू जी मैं श्री गुरुदेव महाराज को प्रसन्न रखने की कला तो स्वभाव से ही ऐसी थी कि आजीवन गुरुदेव उनसे कभी अप्रसन्न नहीं हुए | यहां तक कि कभी-कभी तो वे इन्हें साधना में बिठा देते थे और स्वयं पंखा झलने लगते थे | वाह सतगुरु दयाल आप की सदा ही जय हो जय हो जय हो श्री बाबूजी करते थे कि हमें तो बड़ा आश्चर्य उस समय होता है जब कोई कहता है कि स्त्री प्रसंग में सुख होता है | हमें तो वीर्य त्याग भी मल-मूत्र त्याग के समान ही जान पड़ता है ऐसी बात भोजन के विषय में भी थी घर में चाहे खुशी हो या गम बाबु जी तो सदा प्रसन्न ही रहते थे | कोई मरे और कोई जीवे सुथरा घोल बतासा पीवे | मैंने उनके दर्शन किए थे उस समय वह संभवत रिटायर्ड हो चुके थे मेरे हाथ पकड़ कर बोले क्यों भाई केवल चिदानंद ही चिदानंद है ना | और बड़े जोरों से हंसने लगे | श्री महाराज जी इस दृश्य को देख रहे थे वह हंस कर बोले इससे पूछो यह जानता भी है कि चिदानंद क्या वस्तु है | तो आप बड़ी मस्ती से बोले वाह चिदानंद ही तो अपना आप है भला अपने स्वरूप को कौन नहीं जानता | और केवल आनंद ही आनंद है ऐसा कहते हुए वहां से चले गए | उनकी यह मस्ती अंत तक बनी ही रही वह संभवता कभी बीमार नहीं हुए श्री महाराज जी कहते थे कि एक बार धर्मशाला जिला कांगड़ा में इनके एक बच्चे ने मेरे सामने ही इनकी सो रुपए की घड़ी उठा ली और उनके देखते-देखते पटक कर तोड़ डाली किंतु वे हंसते ही रहे बच्चे से कुछ नहीं कहा और अपने अर्दली को बुला कर कहा इस घड़ी की मरम्मत करा लाओ मैंने कहा यदि आप बच्चे के हाथ से छीन लेते तो क्यों टूटती तब बोले हमें यह कभी ध्यान ही नहीं आता हम तो केवल दृष्टा बनकर देखते रहते हैं वाह रे मस्ताने तेरी मस्ती की बलिहारी जाऊं |
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