Shri Hari जीवन परिचय जीवन परिचय(श्रीलालता प्रसाद जी) पुस्तकालय श्री हरि संकलनकर्ता

सन्यास page.6

" श्रीहरि "

६* सन्यास*
पहले यह लिखा जा चुका है कि श्री दीवान सिंह जी कॉलेज और घर दोनों ही से उपराम होकर श्री गुरुदेव के पास आश्रम में रहने लगे | तथा अपने निर्वाह के लिए उन्होंने एक स्कूल में पढ़ाना आरंभ कर दिया परंतु यह सब करके भी उन्हें संतोष न हुआ | उनका वैराग्य उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया और उन्हें आश्रम की प्रवत्ति भी असह्य हो उठी | वह तो सिद्धों का खेल था वहां पर प्राय: सदा ही बहुत बड़े से बड़े आदमी और उनके स्त्री बच्चे आते रहते थे श्री स्वामी जी महाराज की सिद्धियों की धूम आसपास सब और मच गई थी इसलिए बाहर से भी अनेकों दर्शनार्थी आने लगे थे | प्रसाद का ढेर लगा रहता था तथा उत्तम उ्त्तम मिठाइयां फल मेवेऔर उनी एवं सूती वस्त्र हर समय आते तथा बटते रहते थे| इन सब बातों से आप का चित्त ऊब गया | अतः आप एक दिन बिना किसी से कुछ कहे वहां से चल दिए श्री स्वामी जी महाराज से इस विषय में कोई चर्चा नहीं करी | वहां से चलकर आप रेलवे द्वारा सीधे काशी पहुंचे | वहां हिंदू कॉलेज में बीए में पढ़ना आरंभ कर दिया और निर्वाह के लिए कुछ ट्यूशन कर लिए | इस प्रकार कुछ दिन चला किंतु वैराग्य ने यह क्रम भी अधिक दिन न चलने दिया | अब तो चित्त पूर्णतया भगवतचरणों में आत्मसमर्पण करने के लिए उत्सुक हो उठा | वैराग्य की तीव्र ज्वाला ने विधि-विधान के अड़ंगे को भी असह कर दिया अतः एक दिन अपना सारा सामान दीन दरिद्रों को बांट दिया और बाजार से गेरू लाकर स्वयं ही अपने वस्त्र रंग लिए | इस प्रकार जो वैराग्य अब तक अंतः करण को रंग रहा था वह भीतर न समा सका और आखिर बाहर भी फूट निकला | अब तक आपका बहुत सा समय अध्ययन और अध्यापन में निकल जाता था भोजन आदि की व्यवस्था भी स्वयं ही करनी पड़ती थी | तब भी जितना समय बचता था उसे आप ध्यानाभ्यास में ही लगाते थे छुट्टी के दिन तो आप विश्वनाथ जी से 10 मील दूर शूल टंकेश्वर महादेव पर चले जाते थे और सारा दिन वही बिताते थे | अब तो निरंतर ब्रम्ह चिंतन ही करना था अतः अधिकतर शूल टंकेश्वर पर ही रहने लगे यह स्थान गंगा किनारे एक ऊंचे टीले पर है अत्यंत निर्जन होने के कारण यह आपको बहुत प्रिय था यहां रहकर आप निरंतर अभ्यास करने लगे चित्त सब प्रकार के व्यवहार से उपराम होकर अपने ही स्वरुप भूत प्राणाधार से अभिन्न होने के लिए उत्सुक हो उठा | वास्तव में सच्चा वैराग्य भी तभी होता है जब चित्त को को अपने प्राण आराध्य की प्राप्ति हो जाए और उस परम आनंद सिंधु में निरंतर मग्न रहने के कारण स्वभाव से ही किसी अनात्म पदार्थ की ओर इसका जाना असंभव हो जाए | शास्त्रों में इसे पर वैराग्य कहा है इष्ट देव की प्राप्ति से पूर्व जो दोष दर्शन जनित वैराग्य है वह तो वैराग्य का साधन मात्र है इसे अपर वैराग्य कहते हैं |
किंतु इस स्थिति में भी आप का चित्त कितना पर दुख कातर था इस विषय में यहां एक घटना का उल्लेख किया जाता है उसे आप ही के शब्दों में सुनिए–
एक दिन में शूल टंकेश्वर मंदिर में बैठा हुआ था अकस्मात एक बहुत ही दुर्बल मनुष्य वहां आया और कहने लगा बाबा मैं बड़ा दुखियारा हूं मेरी कुछ सहायता करो मैंने पूछा बोलो तुम क्या चाहते हो मुझसे जो कुछ बनेगा सेवा करुंगा | वह बोला बाबा मुझे हरिद्वार जाना है और मेरे पास पैसा भी नहीं है वहां जाने से मेरे प्राण बच जाएंगे यहां तो मैं मर जाऊंगा | यह कहकर वर रूपड़ा उसकी बात सुनकर मैं असमंजस की स्थिति में पड़ा कि क्या करूं मैंने तो यह नियम किया है कि पैसा हाथ से नहीं छुऊंगा अब यह घटना सामने उपस्थित है क्या जाने भगवान मेरी परीक्षा करते हों | मैंने कहा अच्छा तुम मेरे साथ गांव चलो मैं मांगूंगा और तुम लेते जाना | वह बोला बाबा मुझ में चलने का बिल्कुल सामर्थ्य नहीं है कर सकें तो आप ही मेरी सहायता करें मैंने कहा अच्छा भाई मैं प्रयत्न करूंगा | होना न होना भगवान के अधीन है दोपहर को मैं भिक्षा के लिए गांव गया तो मैंने सब लोगों से कहा भाई एक रोगी को हरिद्वार जाना है उसको किराया चाहिए तुम लोग सहायता करो जिसकी जैसी श्रद्धा हो उसके लिए भिक्षा दो ऐसा कहकर मैंने कपड़े की झोली बना ली सब लोग ला ला कर उसमें पैसे डालने लगे वह सब गरीब लोग थे जब मैंने देखा कि काफी पैसे हो गए हैं तो मैं रोटी लेकर चल दिया | मंदिर में आकर मैंने वह पैसे एक और रखकर ईट से दबा दिए और जब वह रोगी आया तो उसे बता दिए उसने गिने तो ठीक उतने ही निकले जितने वह चाहता था उससे एक भी पैसा न्यूनाधिक नहीं था बस वह लेकर चला गया | इस प्रकार कुछ दिन वहां रहकर आप गंगा जी के किनारे किनारे पैदल ही प्रयाग की ओर चल दिए जहां कहीं एकांत स्थान देखते वहां कुछ दिनों के लिए ठहर जाते थे आप 24 घंटो में केवल एक बार ही भिक्षा के लिए जाते थे और जैसा भी रूखा-सूखा टुकड़ा मिल जाता उसी को गंगा तट पर लाकर खा लेते थे | कुछ दिन तो इस प्रकार करते रहे फिर एक दिन छोड़करभिक्षा करने लगे | प्रयाग में पहुंचने पर आप दो चार दिन वहां ठहरे और फिर चल पड़े वहां से कुछ दूर एक द्रौपदी घाट है वहां एक वृद्ध बंगाली महात्मा का आश्रम था गंगा तट पर ही बड़ी रमणीक और सुंदर एकांत कुटी थी उसी में वह निवास करते थे | बड़े अनुभवी विद्वान तत्वज्ञ और भागवत भक्त महात्मा थे | उन्हें योग का भी अच्छा अनुभव था आप ने जाकर उन्हें प्रणाम किया और बैठ गए बहुत देर तक बैठे रहे फिर उठकर चलने लगे तब भी बोले कैसे चले स्वामी जी कुछ दिनों यही निवास करो | पास में ही गंगा तट पर एक सुंदर और एकांत कच्ची गुफा है | महात्मा जी की यह बात सुनकर और भगवद इच्छा जानकारी आपने रहना स्वीकार कर लिया महात्मा जी ने गुफा बतला दी और बड़े आग्रह से कहा भोजन हमारी कुटिया पर ही कर लिया करें अतः कुछ दिनों तो आपने वही भोजन किया फिर उनसे प्रसन्नतापूर्वक माधुकरी भिक्षा करने की अनुमति ले ली | आप कहते थे कि उन दिनों हम साथ दिन में एक बार परीक्षा के लिए जाया करते थे तो उस दिन तो पूरी पिक्चर कर लेते और बाकी छह दिन के लिए छह रोटियां कपड़े में लपेटकर जमीन में गाड़ देते थे | उनमें से नित्य सवेरे स्नान करके एक रोटी निकालकर कमंडल में भिगो देते थे और दोपहर को 12:00 बजे के लगभग खा लेते थे | फिर 24 घंटे और कुछ नहीं खाते थे | इस तरह इस गुफा में आप पर प्राय: 3 साल रहे ना तो वहां कभी दीपक जला और ना झाड़ू ही लगी उन दिनों आप हर समय उन्मनी सी अवस्था में रहते थे आपकी एकदम उन्मत्त की सी स्थिति थी जैसा कि कहा जड़ोन्मत्त पिशाचवत | वहां पास ही एक बड़ा काला सांप पड़ा रहता था कभी कभी तो वह आप के आसन के नीचे भी आ जाता था और कभी जब आप समाधिस्थ रहते तो शरीर पर भी चढ़ जाता था वहां के कई लोगों ने उसे आपके सिर पर बैठा देखा था | कभी-कभी जब आप स्वाभाविक स्थिति में रहते तो महात्मा जी के सत्संग में भी जाते थे | तब महात्मा जी आपसे ऐसी तितिक्षा करने को मना करते थे | उस समय आप कहते थे महाराज जी मेरा दिमाग खराब हो गया है मैं अपने काबू में नहीं हूं आप मेरी ढिठाई क्षमा करें इस प्रकार अनुनय-विनय करके छूट जाते | परंतु वृद्ध बंगाली बाबा इनकी इस विलक्षण स्थिति को देखकर दंग रह गए और बार-बार प्रयत्न करने पर भी इनके स्वरूप को न समझ सके | परंतु उनका इन में वात्सल्य भाव अवश्य बहुत दर्द हो गया था वह जब अवसर देखते तो इनके कपड़े बदल देते थे कभी-कभी विशेष आग्रह करके भिक्षा करा देते थे और जब यह ध्यान से उठते तो स्वयं ही इनके मस्तक पर कोई शीतल तेल मल देते थे | इस प्रकार प्रायः 3 साल तक आप वहां रहे इनकी अलौकिक स्थिति तथा इनके प्रति श्री बंगाली बाबा की ऐसी श्रद्धा देखकर उनके पास दर्शनार्थियों की बहुत भीड़ होने लगी | अतः आप एक दिन प्रातः काल किसी से कुछ कहे बिना चुपचाप वहां से चल दिए और अवधूत दत्तात्रेय की तरह उन्मत्त प्रायः अवस्था में विचरने लगे | जब भिक्षा का समय होता तब अभ्यास वस ही भिक्षा कर लेते थे और यदि उस समय वृत्ति विशेष एकाग्र हो जाती तो वह समय यूं ही निकल जाता था |
इस तरह कभी-कभी तीन-चार दिन और कभी-कभी तो सात आठ दिन भी साफ निकल जाते थे और आपको याद भी नहीं आती थी कि भिक्षा करना भी शरीर का कोई धर्म है आपको नौ नौ दिन के उपवास करते हुए तो स्वयं मैंने कई बार देखा है उस समय आप जल भी ग्रहण नहीं करते थे और शरीर की सभी क्रियाएं यथावत चलती रहती थी तथा चेहरे पर भी किसी प्रकार का मालिन्य नहीं आता था इस प्रकार आनंदपूर्वक विचरते आप पैदल ही होशियारपुर पहुंच गए |

Add Comment

Click here to post a comment