Shri Hari जीवन परिचय जीवन परिचय(श्रीलालता प्रसाद जी) श्री हरि

पुन: होशियारपुर में page.8

" श्रीहरि "

७ *पुन: होशियारपुर में*
होशियारपुर में पहुंचने पर आप बड़े संकोच में पड़ गए| सोचने लगे कि श्री गुरु महाराज की आज्ञा के बिना ही मैंने कपड़े रंग लिए है न जाने सामने जाने पर वह क्या कहेंगे | फिर याद आया कि नहीं वह तो बड़े दयालु हैं और एक प्रकार से उनकी आज्ञा भी थी वह कहा करते थे कि जो कुछ होना है वह स्वयं ही होगा | और यदि यह भी माने कि मुझसे अपराध हुआ है तब भी और ऐसी कौन सी जगह है जहां मुझे विश्राम मिलेगा और तो हम जैसे भी हैं और जिस हालत में भी हैं हमको तो उन्ही चरणों का सहारा है | अंतर्यामी रूप से वही तो सबके प्रेरक है संसार में जो कुछ हो रहा है उसे वही तो सत्ता प्रदान कर रहे हैं | अथवा सब रूपों में वही तो सब कुछ कर रहेहैं | इस प्रकार के विचारों से जब साहस हुआ तो आपने दिन में नहीं रात को छिपकर आश्रम में प्रवेश किया इस समय संकोच के भार से आप गड़े जाते थे | जैसे तैसे बड़ी हिम्मत करके श्री चरणों में प्रणाम किया और रो पड़े | श्री स्वामी जी महाराज पहचान गए और आपके पूर्वआश्रम का नाम लेकर बोले क्या दीवान सिंह है | आप कुछ बोले नहीं तब पास ही खड़े हुए एक व्यक्ति ने कहा महाराज जी अब यह साधु हो गए हैं | तब स्वामीजी ने आंख उठाकर इनकी ओर देखा देखकर वह बड़े प्रसन्न हुए और इन्हें पृथ्वी से उठाकर अपनें हृदय से लगा लिया उनके नेत्रों से उस समय आनंद अश्रु झरने लगे वह एकदम प्रेम में भरकर गद गद वाणी से बोले बेटा तुम कृतार्थ हो गए और मुझे भी कृतार्थ कर दिया | तुमने दोनों को ही पवित्र कर दिया शास्त्र में लिखा है जिस कुल में एक भी साधु हो जाता है उसकी २१ पीढ़ियों का उद्धार हो जाता है और तुम तो जन्म से ही साधु थे | अच्छा तुम स्वयं ही साधु हुए हो इसलिए तुम्हारा नाम स्वत: प्रकाश होगा | इस प्रकार जब आपने श्री स्वामी जी को प्रसन्न देखा तो आपके आनंद का पारावार न रहा आप बड़े ही प्रसन्न हुए | दूसरे दिन जब श्री स्वामी जी ने इनकी ओर विशेष ध्यान देकर देखा तो बोले क्यों भाई तुम्हारा शरीर इतना दुर्बल क्यों हो गया है मालूम होता है तुमने बहुत तितीक्षा की है यह ठीक नहीं देखो गीता में स्वयं भगवान कहते हैं-
नात्यश्नतस्तु योगोSस्ति चैकान्तमनश्नत: |
न चातिस्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन||
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु |
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगी भवति दु:खहा||
अर्थात हे अर्जुन ना अति भोजन करने वाले न सर्वथा भोजन करने वाले ना बहुत अधिक सोने वाले और ना अधिक जागने वाले से ही योग हो सकता है जो नियमित आहार विहार करता है कर्मों में नियमित चेष्टा करता है तथा नियमित सोने और जागने वाला है उसी से दुख नाशक योग हो सकता है | जिस पर भी इस समय तो घोर कलिकाल है इस समय कि मनुष्य बहुत ही अल्प शक्ति हैं इसलिए सामर्थ्य के अनुसार ही सब काम करने चाहिए अधिक हठधर्मी करने से शरीर बीमार होकर मन और इंद्रियां भी काबू से बाहर हो जाती है | इसके सिवा अभी तो तुम्हारे इस शरीर से संसार का बहुत काम होना है इसलिए इसे संभाल कर रखो इसे न तो इतना ढीला छोड़ो के यह आलसी बनकर निकम्मा हो जाए और नहीं इतना कसो कि परिश्रम के कारण एकदम शिथिल पड़ जाए आजकल तो सब बातों में मध्यमार्ग ही श्रेयकर है| शरीर स्वस्थ ना रहने पर तो किसी भी पुरुषार्थ की सिद्धि नहीं हो सकती |
धर्मार्थकाममोक्षाणामारोग्यं मूलकारणम्|

गुरु महाराज का इस प्रकार आदेश होने पर हमारे महाराज जी ने तितिक्षा ढीली कर दी और युक्ताहार विहार का नियम रखकर ठीक समय पर शौच स्नान आसन व्यायाम तथा भोजन आदि करना आरंभ कर दिया | आप आश्रम की सेवा बड़े चाव से करते थे तथा स्वामी जी की सेवा में भी बड़ा उत्साह और प्रेम रखते थे | तथा सब के साथ यथोचित व्यवहार करते थे आपके इस्नेही तथा संकोची स्वभाव मधुर आलाप एवं सेवा परायणता आदि गुण सभी के चित्तों को बलात आकर्षित कर लेते थे इस प्रकार आप बहुत दिनों तक आश्रम में रहकर सब को आनंदित करते रहे |
जब आपके साधु होने की बात घर वालों ने सुनी तो वे बड़े ही मर्माहत हुए | उनमें भी सबसे अधिक दुख आपके पिताजी को हुआ आपकी माताजी तो बहुत विचारशीला थी किंतु पिता जी महाराज दशरथ जी की तरह प्रगाढ़ वात्सल्य की मूर्ति होने के कारण बड़े मोही स्वभाव के थे
वह तो यह सुनते ही कि दीवान सिंह साधु हो गए हैं मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े फिर होश में आने पर विलाप करने लगे श्री महाराज जी की माताजी ने समझाया कि आप दुखी क्यों होते हैं | वह तो कई जन्मों का साधु है मुझे तो उसने अपना विचित्र रूप दिखाकर साफ ही कह दिया था कि मैं तुम्हारे घर में संसार में फसने के लिए नहीं आया हूं लाओ मेरा धनुष और पुस्तक में तो वही साधू हूं | यह सुनकर मैं तो डर ही गई थी और मैंने उसे प्रसन्नतापूर्वक आज्ञा दे दी थी हाय मैंने तो स्वयं ही अपने बच्चे को घर से निकाल दिया ऐसा कहकर वह फूट फूट कर रोने लगी और मूर्छित हो गईं | यह सुनकर पड़ोस के स्त्री-पुरुष भी इकट्ठे हो गए और इनके सुंदर रूप सील एवं गुण स्मरण करके फूट-फूट कर रोने लगे | संसार का यह स्वभाव ही है कि यदि किसी का सुहृद किसी निमित्त से विदेश चला जाए अथवा मर कर सदा के लिए आंखों से ओझल हो जाए तो काल क्रम से स्वयं ही संतोष आ जाता है किंतु यदि कोई परमार्थ साधन के लिए जीवित अवस्था में ही साधु हो कर रहे तो सहसा धैर्य नहीं होता | यूं तो आपका सारा कुटुंब अत्यंत पवित्र सुशिक्षित और साधन संपन्न था उसमें सदा से ही योग संपन्न पुरुष होते रहते थे किंतु इस समय उनके चित्त को उलझन में डालने वाला भी तो कोई सामान्य पुरुष नहीं था| श्री राम के वन गमन के समय अयोध्या वासियों की क्या हालत हुई थी | श्री अयोध्या नरेश ने तो अपने प्राण त्याग दिए थे माता कौशल्या भी मूर्छित होकर पुन: दर्शनों की आकांक्षा से ही जीवित रह सकी थी | तथा भरत जी को तो बिना दर्शनों के शांति ही नहीं हुई’ देखे बिन रघुवीर पद जिय की जरनि न जाए,” और सचमुच वह श्री चरणों के दर्शन करके ही सुखी हुए | औरों की तो बात ही क्या ज्ञान शिरोमणि गुरु वशिष्ठ जी का चित्त भी व्याकुल होकर कह उठा ,,सोक सिंधु बूडत सबहि तुम अवलंबन दीन्ह”
भाई इस नटखट से संबंध तो अपेक्षित है फिर चाहे वह किसी भी प्रकार हो | चाहे मोह से अथवा ज्ञान से प्रेम से अथवा बैर से आदर से अथवा अनादर से उसके हृदय में हमारी और हमारे हृदय में उसकी याद बनी रहे बस फिर क्या है बेड़ा पार है-
कत: कीजिए ना ताल्लुक हम से| अगर मोहब्बत न सही अदावत ही सही |
बस किसी भी संबंध से उस से छेड़छाड़ बनी रहे |
“मोहि तोहि नाते अनेक मानिये जो भावै
ज्यों त्यों तुलसी कृपाल चरन सरन पावै |”
बस जैसे तैसे सब्र आया और सभी की एक बार देखने की उत्सुकता बढ़ी एक एक करके सभी आए | जिस समय माता पिता भ्राता अथवा कोई अन्य गुरूजन आते तो आप डर से जाते हुए बड़े अदब से उन्हें प्रणाम करते और संकोच के साथ एक ओर खड़े हो जाते थे मानो कोई बड़ा अपराध किया हो यदि कोई कुछ कहता तो आप रो देते उत्तर कुछ ना देते हो वाह रे नटखट तेरी यह अनोखी लीला |
“ली जे नटवर की लीला निहार अनोखी जादू भरी”
वाह रे चतुर चूड़ामणि तेरी भोली भाली सूरत चातुर्य का भंडार है | इस प्रकार एक एक करके सभी घरवाले मिले फिर सब ने यह विचार किया कि इनका स्वभाव बहुत कोमल है हमारा दुख इन्हें सहन नहीं होता इससे यह मर्माहत होते हैं इसलिए जहां तक हो सके इनसे कम से कम मिलो तथा छोटे बड़े सभी उनके लिए भगवान से प्रार्थना करो कि श्री हरि इनका मनोरथ पूर्ण करें | इनके द्वारा सारे जगत का मंगल हो और इनका कभी कोई अनिष्ट न हो इनका वैराग्य तथा भगवत्प्रेम दिन दूना रात चौगुना बढ़ सके | अब तक तो यह हमारे निज धन थे किंतु अब तो जगत के सभी जीवो का इन पर समान अधिकार है | अब तक तो यह हमारे निज धन थे अब यह केवल हमारी ही संपत्ति नहीं वरन सारे संसार के निज धन हैं| भगवान इन्हें जहां भी रखें सुख से रखें निरोग रखें इनका लौकिक और पारलौकिक कल्याण हो इन्हें कभी किसी भी अवस्था में दुख न हो | इस प्रकार वह सब इन्हें हृदय से आशीर्वाद देने लगे और उसी समय से मिलना जुलना कम कर दिया | यदि वह सब आश्रम में जाते तो भी केवल गुरु जी महाराज के पास ही होकर लौट आते इन्हें दूर से ही देखकर नेत्रों को सफल कर लेते थे | हां इनके बड़े भाई सरदार हीरा सिंह जी बड़े मनचले थे वह घर में रहते हुए भी परम विरक्त थे उनका अधिकांश समय ध्यान भजन एवं स्वाध्याय में ही व्यतीत होता था | यह अभी श्री महाराज जी की बहुत देखभाल रखते थे और इनकी तितिक्षा की कड़ी आलोचना करते थे इन्हें युक्ताहार विहार का महत्व समझाते और इनसे नियमानुसार आसन व्यायाम आदि करवाते थे | उन्हीं का प्रभाव है कि नियमित व्यायाम आपसे अभी तक छूटा नहीं है तथा आपके भोजन शयन स्वाध्याय और कीर्तनादि एक नियमित क्रम से ही चलते हैं | आप कभी किसी हालत में किसी के साथ संसारिक बातें नहीं करते आप हराया कहते हैं कि मनुष्य जीवन क्षणभंगुर है प्रथम तो आयु ही बहुत अल्प है उसमें भी प्रा या आधा समय खाने-पीने सोने आदमी निकल जाता है इस थोड़े से समय में मनुष्य को चाहिए कि दांत से दांत पीसकर निरंतर श्री भगवान का भजन करें सबसे उत्तम भजन तो यही है कि श्री संत सद्गुरु की शरण होकर उनकी आज्ञा में रहते हुए निरंतर उन्हीं की सेवा करें और यही वास्तविक भजन है भला हमको क्या मालूम है कि भगवान क्या है और हमारा कर्तव्य क्या है | हमने तोअपने मन के कल्पित भगवान माने हुए हैं यदि मनीराम की मौज हुई तो खूब डट कर सेवा और पूजा कर ली और यह किसी कारण से बिगड़ गए तो सब सेवा पूजा ताक में रखी रह गई सदगुरुदेव तो साक्षात हमारे सामने विद्यमान है | वह हमारे प्रत्येक कर्म के साक्षी हैं हमारे मन की चालों को खूब समझते हैं इसलिए उनके सामने मनीराम की चालाकी नहीं चलती | अतः मन पर काबू पाने के लिए भी गुरु चरणों की सन्निधि और सेवा का ही सबसे बड़ा साधन है | आप आश्रम में रहते समय श्री गुरु महाराज की मनोवृत्ति को समझ कर ही उनकी समयानुकूल सेवा किया करते थे आप कहां करते हैं उत्तम सेवक तो वही है जो बिना बताए ही स्वामी के हृदय को समझ कर ठीक-ठीक सेवा करता है मध्यम सेवक वह है जो कहने पर करता है और जो कहने पर भी ठीक ठीक नहीं कर पाता वह तो शिष्य या सेवक कहलाने का अधिकारी ही नहीं है | गुरु शिष्य का संबंध तो यही है किशिष्य का मन गुरु के मन से एक हो जाए तभी शिष्य के मन में गुरु के मन का अनुभव ज्यों का त्यों उतर सकेगा इसके अतिरिक्त कोई और उपाय नहीं है इसका साधन एकमात्र सच्चा प्रेम और हृदय की सच्ची लगन ही है | बहुधा शिष्य या भक्त लोग एक शिकायत किया करते हैं कि हम तो बहुत साधन और सेवा करते हैं किंतु भगवान या गुरुदेव हम पर कृपा ही नहीं करते जो ऐसा कहते हैं उन्होंने तो साधन या सेवा का रहस्य नहीं जाना सच्चा सौदा किया सेवक तो बड़े से बड़ा त्याग या सेवा करने पर भी यही समझता है कि मुझसे तो कुछ बना ही नहीं और सर्वदा तत्पर से लगे रहने पर भी उनकी कृपा की बाट जोहता रहता है वास्तव में इस तुच्छ अल्पज्ञ जीव का पुरुषार्थ ही क्या हो सकता है किंतु केवल कृपा के भरोसे साधन से विमुख होकर हाथ पर हाथ रखे बैठे रहने से तो कृपा की आशा करना भी नितांत धोखे की बात है | अपनी ओर से पूर्ण पुरुषार्थ करते हुए भी भगवत कृपा की ही आशा रखना सच्चे साधक का लक्षण है ऐसा साधक ही एक दिन गुरु कृपा से कृतकृत्य हो सकेगा | कभी-कभी अपनी उस समय की गुरु सेवा का वर्णन करते हुए आपने कहा है भाई तुम क्या सेवा कर सकते हो हमको वर्षों निरंतर सेवा करते हुए खाना सोना और आराम करना स्वप्न हो जाता था महाराज का इतना बड़ा शासन था कि हम रात को पंखा कर रहे हैं और महाराज जी सो गए तो उठने पर कहते कि अरे तुम सोए नहीं तुम बडे मुर्ख हो और यदि कोई किसी दिन उनके सोने पर पंखा छोड़ कर सो जाता तो आप आंखें खुलने पर उसे बुलाते और उससे कहते कि तुम बिना आज्ञा कैसे चले गए अब या तो तुम आश्रम से चले जाओ या कोई दंड स्वीकार करो | बस फिर उसे कोई दंड बोल दिया जाता बाबू सलामत राय रात को रजाई ऊपर से उठा कर पलंग पर रख दिया करते थे 1 दिन वह रखना भूल गए तो महाराज जी ने रात ही को किसी से बुलाकर कहा जाओ अभी सलामतराय को बुलाकर लाओ माघ का महीना और पंजाब का शीतथा पर वह बेचारा उसी समय गया और सलामतराय को जगा कर कहा जल्दी चलो महाराज जी बुला रहे हैं | बाबूजी घबराए कि न जाने आज क्या अपराध हो गया तुरंत भागे आए तब महाराज जी ने कहा सलामत आज तूने रजाई नहीं रखी ला उठाकर | तब बेचारे की जान में जान आई और ऊपर से उठाकर रजाई रखती तब आप बोलें बस आज तुमको यही दंड है कि सारी रात नसों कर खड़े-खड़े भजन करो इस तरह महाराज जी अपने सेवकों को अपने कर्तव्य में कभी ढीला नहीं होने देते थे | हमारे महाराज श्री का कहना है कि जो भी काम करो वह छोटा या बड़ा ठीक समय पर और सुचारु रुप से करो | जिस समय जो कुछ करो पूरा चित्त लगाकर करो बस यही परम योग है देखो हमारा व्यवहार ही तो बिगड़ा है परमार्थ तो बिगड़ा नहीं है वह तो जों का त्यों है जिस समय तुम्हारा व्यवहार शुद्ध हो जाएगा परमार्थ बना ही समझो इसी तरह यदि किसी विशेष समय पर किसी आदमी को कोई काम करने के लिए नियुक्त किया गया हो तो उस समय उसे ही वह काम करना चाहिए यदि किसी कारणवश मैं उपस्थित नहीं हो सकता हो तो उसे समय से पहले सूचना दे देनी चाहिए कि मैं अमुक कारण से नहीं आ सकूंगा यदि तुम नें किसी को वचन दिया है कि मैं अमुक समय अमुक स्थान पर मिलूंगा | तो फिर चाहे दुनिया उलट-पुलट हो जाए चाहे साक्षात काल भी सामने आ जाए तो भी तुम अवश्य पहुंच जाओ | या फिर उस समय से पहले उसे सूचना दे दो कि अमुक विवशता के कारण नहीं आ सकूंगा | प्रथम तो किसी को वचन ही मत दो और यदि दो तो उसे प्राणप्रण से पूरा करो | ऐसा करने से जनता में तुम्हारा विश्वास होगा और तुम्हारा चित्त भी शुद्ध हो जाएगा | *जो परमार्थ साधन के भरोसे व्यवहार में लापरवाही करता है वह परमार्थ से भी कोरा ही रह जाता है |* इसलिए अपने संबंधों का परस्पर धर्म और सच्चाई के साथ निर्वाह करो यही जनता और जनार्दन दोनों की सबसे बड़ी सेवा है | यह बात तो पहले ही कही जा चुकी है कि श्री गुरुदेव की सिद्धियों की धूम सारे शहर में और आसपास भी फैल रही थी आश्रम में हर समय धनी निर्धन स्त्री पुरुष सब प्रकार के लोग आते रहते थे | अनेकों भक्त और सेवक तरह-तरह के काम में लगे रहते थे सफाई पर तो श्री महाराज जी का विशेष जोर था ही इसलिए आश्रम में किसी प्रकार की गंदगी नहीं थी कहीं कोई सूखा पत्ता भी पड़ा ना मिलता था | आश्रम क्या था साक्षात नंदन वन ही था हर समय कुएं से पानी लाया जाता था दोनों समय लंगर भी चलता था उसमें भोजन अधिकतर भक्त जनों की स्त्रियों ही बनाती थी | महाराज जी अतिथियों का बड़ा सत्कार करते थे और आगंतुक साधुओं को देखकर बड़े प्रसन्न होते थे आप कहा करते थे कि साधुओं को अपने खास जामाता से भी अधिक समझ कर सेवा करनी चाहिए वास्तव में आश्रम क्या था कल्प वृक्षों का बगीचा ही था उसकी छाया में जो जिस उद्देश्य से आता वही कृतकृत्य हो जाता वहां निरंतर पुरुषार्थ चतुष्टय की लूट सी लगी रहती थी महाराज जी तो सदा अपनी मस्ती में सहजावस्था में झूमते रहते थे यहां तक कि कभी-कभी तो बाल भाव में कौपीन बांधने का भी ध्यान नहीं रहता था आपका सच्चिदानंद आश्रम यथा नाम तथा गुण था | आश्रम की नीचातिनीच सिवा से भी उच्चाति उच्च ब्रम्हानंद की प्राप्ति होती थी| एक पुरुष झाड़ू दे रहा है और एकदम उसका चित्त समाहित हो जाता है | तो भी जैसे तैसे अपने कर्तव्य का पालन कर रहा है इतने में ही श्री स्वामी जी महाराज आ निकले उन्हें एक दिल्लगी करने का मौका मिल गया उसको गालियां देते हुए कहने लगे तू झाड़ू देता है या सो रहा है और झाड़ू उसके हाथ से छीन ली तथा उसका आसन ठीक कर दिया बस अब क्या था आपके कर कमल का स्पर्श बातें जो कुछ असर थी पूरी हो गई सो गई | वह एकदम समाधिस्त हो गया | और उसकी चिज्जड़ग्रंथि सदा के लिए टूट गई वह जीव से ब्रह्म हो गया-

सतगुरु के मारे मूए धन्य जिन्हों के भाग | त्रैगुण से ऊपर गए जहां दोष नहीं राग | |

समाधि से व्युत्थान हुआ तो संत सद्गुरु की अहैतुकी कृपा का स्मरण करके अति विव्हल हो गया | और बीमा श्रुति श्री गुरुदेव के चरणों को धोने लगा इस प्रकार की कैसी भी सेवा करें उसे मजदूरी में मिलता ब्रम्हानंद ही था | आश्रम में दयाल जी नाम के एक वृद्ध महात्मा रहते थे वे बड़े ही प्रसन्नवदन थे | परंतु उन्हें बढ़िया बढ़िया माल खाने का शौक था | वह प्राय: शहर जाते और श्री स्वामी जी महाराज के भक्तों से कहते कि आज महाराज यह चीज खाएंगे | इससे भक्त लोग बड़ी प्रसन्नता से बताई हुई चीज बनाकर उन्हें दे देते थे | और वह मन ही मन श्री स्वामी जी महाराज को भोग लगाकर उसे चुपचाप खा लेते थे | इसी तरह दयाल जी को माल उड़ाते रहे उनके मुंह में दांत एक भी नहीं था इसलिए अधिकतर हलवा या फिर खीर ही खाते थे | श्री स्वामी जी महाराज दयाल जी का विशेष ध्यान रखते थे | स्वामी जी जब भोजन के विषय में पूछते तो दयाल जी बड़ी नमृता के साथ कह देते आपकी बड़ी कृपा है मैं तो आपके नाम पर ही भिक्षा मांग कर पेट भर लेता हूं | या सुनकर महाराज जी बहुत प्रसन्न होते और दयाल जी की प्रशंसा करते हुए कहते कि बड़ा ही निस्प्रह साधु है | एक बूढ़िया श्री स्वामी जी महाराज की भक्त थी यह उससे श्री स्वामी जी महाराज का नाम लेकर बहुत सी चीजें ले आया करते थे | एक दिन प्रसंग बस वह श्री स्वामी जी महाराज से पूछ बैठी कल वाली वह चीज़ कैसी बनी थी | स्वामी जी महाराज बोले क्या चीज ?हमने कब खाई? उस बुढ़िया ने कहा कल दयाल जी यह चीज नहीं लाए थे क्या स्वामी जी महाराज ने कहा नहीं तो यहां पर क्यों लाते| अब तो वह बहुत चकित हुई | स्वामी जी महाराज ने पूछा ठीक बताओ क्या बात है | तब बुढ़िया ने सारा हाल बताया | श्री स्वामी जी महाराज उन्हें बुलाकर हंसते हुए गाली देकर बोले क्यों रे तू हमारे नाम से लाकर रोज माल उड़ाता है दयाल जी हंसे और हाथ जोड़कर बोले गरीब परवर आपका नाम लेकर तो सारा संसार धर्म अर्थ काम मोक्ष चारों पदार्थ प्राप्त करता है यदि मैंने आप के नाम पर पेट भर लिया तो क्या पाप किया और आपके पूछने पर तो मैं स्पष्ट ही कह देता था कि मैं तो आप के नाम पर भिक्षा मांगकर खा लेता हूं | इसके अलावा मैं वह भोजन मन ही मन आपको अर्पण करके खाता था | इस पर महाराज जी प्रसन्न होकर हस पड़े और तब लोगों से कह दिया कि आज से दयाल जी की छुट्टी है यह जो चाहे खाएं शहर में भी इन्हें हमारा स्वरुप समझकर यह जो मांगे वही खिलाया करो | स्वामी जी न तो किसी को बुलाते थे ओर न किसी को मना करते थे जो जिस भावना से आता था उसकी वही भावना पूर्ण हो जाती थी | आपके दिव्य मंगलविग्रह में कतिपय भक्तों ने दिव्य चमत्कार भी देखें थे | एक दिन जब स्वामी जी आराम कर रहे थे तो पंखा झलने वाले भक्त ने देखा पलंग पर पड़े पड़े स्वामी जी का शरीर बढ़ने लगा शरीर इतना बढा कि सारा कमरा भर गया | अतः वह भक्त भयभीत होकर कमरे से बाहर आ गया उसी समय एक दूसरे भक्त ने उन्हें बगीची में टहलते हुए भी देखा | और इसी समय एक भक्त ने उन्हें अपने घर में भोजन करते हुए पाया | इसी प्रकार कभी-कभी वह होते तो आश्रम में ही थे परंतु बहुत से लोग उन्हें दूसरे शहर या तीर्थो में भ्रमण करते हुए देखते थे | पूछने कह देते थे कभी-कभी हम बाहर घूमने जाया करते हैं | कई बार आप कमरे में अकेले होते थे परंतु ऐसी आवाज सुनाई देती जैसी कमरे में कई लोग बात कर रहे हों | और झांककर देखने पर वहां स्वामी जी महाराज के अतिरिक्त कोई दिखाई नहीं पड़ता था | पूछने पर स्वामी जी महाराज बताते कि कभी कभी हमारे पास देवता सिद्ध लोग आया करते हैं | बड़े महाराज की इस प्रकार की चमत्कारिक घटनाएं बहुत है कोई जिज्ञासु कहीं बाहर है और उसके साधन में रुकावट पड़ गई बस वह मन ही मन आप का स्मरण करता तब उसे तत्काल ऐसा प्रतीत होता ह्रदय में श्री स्वामी जी महाराज की वाणी सुनाई दे रही है | अथवा आप स्वयं उसके सामने प्रकट हो कर उसके संसय का निवारण कर रहे हैं | आपकी सर्वज्ञता और अंतर्यामिता की ख्याति सर्वत्र थी| यदि किसी साधक को स्वामी जी महाराज से कुछ पूछना होता था तो वह स्पष्ट नहीं कह कर उस संकल्प को मन में लेकर सामने जाता था | बस स्वामीजी उसकी समस्या को ताड़ कर उसके मन का सारा हाल कहदिया करते थे | एक बार आश्रम में भंडारा था उसमें भोजन की कमी पड़ गई | इस पर आपने भोजन की पात्र के ऊपर कपड़ा डालकर कहा के कपड़ा हटाए बिना जितना चाहे भोजन ले लेना कमी नहीं पड़ेगी और ऐसा ही हुआ उनमें से निकाल निकाल कर हजारों मनुष्यों को भोजन करवा दिया गया परंतु कमी नहीं पड़ी अंत में जब कपड़ा हटाया गया तब उसमें केवल 5लोगों का भोजन शेष बचा था | आपकी एक बात बड़ी ही विचित्र थी कभी-कभी आप स्वयं ही पंगत में भोजन परोसने लगते थे | उस समय एक एक आदमी के सामने पांच-पांच मनुष्यों का भोजन परोस दिया करते थे | वह बेचारे गिड़गिड़ाकर मना करते तो आप कहते देखो आज जो जितना अधिक खाएगा उसको ध्यान में उतना ही अधिक आनंद मिलेगा | फिर आपको पर खड़े होकर कहते खबरदार जो किसी ने एक कण भी छोड़ा | बेचारे भोजन करने वाले चुपचाप सब खा जाते परंतु सचमुच उन्हें किसी प्रकार का कोई विकार नहीं होता था और भोजन में भी उनका मन अधिक समाहित होता था | ऐसी छेड़छाड़ प्राय: उन्हीं लोगों के साथ होती थी जो आपके विशेष कृपापात्र थे |

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