श्री हरि संत परिकर

पूज्य बाबा page.11

" श्रीहरि "

 

पूज्य बाबा*
भेरिया की सबसे महत्वपूर्ण घटना है विश्व प्रसिद्ध शिव स्वरूप श्री श्री 108 श्री उड़िया बाबा जी महाराज के साथ हमारे चरित्र नायक श्री श्री 108 पूज्यपाद श्री हरि बाबा जी महाराज की भेंट| यूं तो कई दृष्टियों से आपके जीवन में भ्रगु क्षेत्र पधारने की घटना एक ऐतिहासिक महत्व रखती है | किंतु उसी दिन पूज्य बाबा के साथ जो आपकी भेंट हुई उसका स्थान तो निराला ही है | जीवन में आपका सबसे घनिष्ठ और चिरस्थाई संबंध श्री बाबा से ही रहा है और यह जिस दिन से हुआ है निरंतर बढ़ता ही गया है | वह दिन भी देव योग से वही था जिसमें आपने भ्रगु क्षेत्र में पदार्पण किया उस रोज बाबा पूर्व की ओर से गंगा के किनारे किनारे विचरते भेरिया में पधारे और आप उससे कुछ ही क्षण पश्चात पश्चिम से यात्रा करते राजघाट स्टेशन पर उतर कर यहां आए | बस बंगाली बाबा की कुटी के सामने नीम के नीचे चबूतरे पर यह अध्यात्मिक गंगा यमुना का अद्भुत संगम हुआ | उस दिन सचमुच भेरिया अध्यात्मिक प्रयागराज ही बन गया वहां जैसे प्रछन्नवाहिनी सरस्वती का सम्मिलन माना जाता है | उसी प्रकार यहां निगूढ भावापन्न स्वामी श्री शास्त्रानंद जी थे | इस प्रकार उस दिन यहां संत स्वप्न में पूर्ण तोया त्रिवेणी का ही आविर्भाव हो गया |
बस दोनों की एक दूसरे पर गहरी दृष्टि पड़ी और न जाने मूंक भाषा में क्या संभाषण हुआ | यह सब तो वही जाने किंतु दोनों के पारस्परिक व्यवहार से तो यह स्पष्ट है कि उस दिन यह अनदेखा ही हृदय मिलन हुआ | दोनों ने एक दूसरे की स्थिति पर मुग्ध होकर एक दूसरे को ह्रदय समर्पित कर दिए | इसके पश्चात मुंह खोल कर तो संभवतह जीवन भर कोई बात नहीं हुई | या सम्मेलन तो सचमुच वैसा ही हुआ जैसा नवद्वीप धाम में श्री पाद नित्यानंद और श्री गौरसुंदर का हुआ था | वहां जैसे श्रीपाद के मिलने पर श्री गौ सुंदर का उत्साह और विश्व प्रेम सौ गुना बढ़ गया था उसी प्रकार बाबा के मिलने पर आपका भी एक बड़ा भारी अभाव सा मिट गया और इनका सहयोग पाकर आपने निर्भय होकर श्री हरिनाम वितरण किया |
पूज्य बाबा और हमारे चरित्र नायक की जोड़ी साक्षात नर नारायण के समान ही है आगे चलकर तो दोनों का जीवन परस्पर बहुत घुल मिल गया है अतः यहां बाबा के जीवन का संक्षिप्त परिचय देना किसी प्रकार अप्रासंगिक नहीं होगा | पूज्य बाबा ने पुण्य पुरी श्री जगन्नाथ धाम के एक राज्य सम्मानित ब्राह्मण कुल को अपने जन्म से कृतार्थ किया था |
आपके पूर्वज वंश परंपरा से जगन्नाथपुरी के राजपरिवार का आचार्यत्व करते रहे हैं | राजगुरु होने के कारण यह वंश उस प्रांत में बहुत सम्मानित समझा जाता था | आपके पिता पितामह तक उस कुल का कोई पुरुष बिना डोली के बाहर नहीं निकलता था| इन्हें पचास-साठ गांव के लिए धार्मिक व्यवस्था देने का अधिकार था इस प्रकार उस प्रांत में इस परिवार की बहुत अच्छी प्रतिष्ठा थी |
पूज्य बाबा से सात-आठ पीढ़ी पूर्व आप के एक पूर्वज काली के उपासक थे | मां काली की उनपर अपूर्व कृपा थी मां ने उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन देकर सर्वदा उनके कुल में रहने का वर दिया था | तब से वह इस कुल की इष्टदेवी रही और सर्वदा इसकुल की देखभाल करती रही हैं | कहा जाता है कि एक बार आपके प्रपितामह काली मंत्र क्रीं जब रहे थे | जपते जपते भूल सेवे कृष्ण मंत्र क्लीं जपने लगे | उसी समय मां ने उनके मुंह पर ऐसा तमाचा लगाया कि वह टेढ़ा हो गया और फिर आजन्म वैसा ही रहा | उन्हीं के पुत्र पंडित वासुदेव मिश्र आपके पितामह हुए | उनके तीन पुत्र थे चक्रधर मिश्र प्रभाकर मिश्र और वैद्यनाथ मिश्र | उनमें कनिष्ठ पंडित वैद्यनाथ मिश्र ही आपके पूज्य पिता जी महाराज थे | बाबा का जन्म भाद्रपद कृष्णा ७ सं• १९३२को ठीक मध्यान्ह के समय हुआ था | उस दिन आपके यहां श्री कृष्ण जन्माष्टमी का उत्सव था | घर में प्रथम पुत्र का जन्म होने के कारण सभी को बड़ा आनंद हुआ |किंतु विधाता का विधान दूसरा ही था आपकी माता श्री लक्ष्मीदेवी पर प्रसूति रोग का आक्रमण हुआ और वे तीसरे दिन ही आपको मात्र हीन करके परलोक सिधार गईं | अब आप के लालन पालन पोषण का भार आपकी बड़ी ताई जी पंडित प्रभाकर मिश्र की पत्नी ने संभाला उनकी कोई संतान नहीं थी इसलिए उन्होंने बड़ी प्रसन्नता से आप को स्वीकार कर लिया | कुछ दिन पीछे नामकरण संस्कार होने पर आपका नाम आर्त्तत्राण मिश्र रखा गया | बचपन में आपके स्वभाव में बड़ी विचित्रता थी मात्र स्तनों का पोषण न मिलने के कारण आपका शरीर बहुत कृश और प्रायः रोगी रहता था | आपके स्वभाव में चपलता का नाम निशान भी नहीं था जहां डाल दिए वहीं पड़े रहे और जहां बैठे हैं बहुत देर तक वहीं बैठे रहे खेल कूद से आपको कोई मतलब नहीं था नेत्र प्रायः मुंदे से रहते थे | यदि कोई पीटता तो चुपचाप पिट लेते थे उसके प्रतिकार का कोई प्रयत्न नहीं करते थे | आपकी इस मुनि व्रत्ति से सभी को बड़ा आश्चर्य होता था |
कुल प्रथा के अनुसार 4 वर्ष 4 महीना और 4 दिन की आयु में आपका यज्ञोपवीत संस्कार हुआ तथा घर पर ही एक गणक जोशी के द्वारा आपको आरंभिक शिक्षा दी जाने लगी | इस प्रकार 12 वर्ष की आयु तक आप घर पर ही उड़िया भाषा गणित और साधारण संस्कृत की शिक्षा पाते रहे | शरीर दुर्बल होने के कारण गुरुजनों की इच्छा आप पर पढ़ाई लिखाई का विशेष भार डालने की नहीं थी | तथा आपका विचार तो दूसरा ही था आपको घर में खाली पड़े पड़े जीवन व्यतीत करना पसंद नहीं था अतः एक दिन घरवालों से बिना कहे ही एक भडुरी के लड़के के साथ आप घर से चल दिए और बालेश्वर होते हुए मयूरभंज पहुंचे | इस अल्प आयु में यह साहस आपकी स्वभाविकी स्वाधीनता और असंगता को ही सूचित करता है | मयूरभंज की पाठशाला में आप के पिताजी के परिचित पद्मनाभआचार्य नाम के एक पंडित थे अतः उन्होंने बड़ी प्रसन्नता से इन्हें पाठशाला में भर्ती कर लिया परंतु आपको भय था कि कहीं पंडित जी घर वालों को सूचना ना दे दें इसलिए कुछ ही दिनों में आप वहां से चलकर वालयावेड़ा आए और यहां राजा कृष्ण चंद्र की पाठशाला में भर्ती हो गए इसी पाठशाला में 5 वर्ष रहकर आपने काव्य तीर्थ की परीक्षा पास की | जिस समय आप काव्य तीर्थ के पंचम खंड में पढ़ते थे एक ऐसी घटना हुई जिससे आपके हृदय में निहित निगूढ भगवत्प्रेम का परिचय मिलता है |
राजा कृष्ण चंद्र एक निष्ठावान वैष्णव थे उनके यहां श्री गोपीनाथ जी का एक मंदिर था | जिसमें कार्तिक शुक्ला नवमी से पूर्णिमा तक विशेष रूप से उत्सव मनाया जाता था | इस समय वहां नाटक मंडलियां भी बुलाई जाती थी इस साल कलकत्ते की बाल संगीत नाम की एक प्रसिद्ध मंडली आई थी | उस मंडली ने ब्रह्मा का वत्स हरण नामक नाटक का अभिनय किया | अभिनय मे एक विचित्र आया बृज की बनस्थली में बाल सखाओं से गिरे हुए श्री नंद नंदन छाक खा रहे हैं गोवत्स इधर-उधर चर रहे हैं | बाल गोपालों ने भगवान को चारों ओर से घिरा हुआ है श्यामसुंदर उन्हें पत्तों पर भोजन परोस रहे हैं और वे एक दूसरे से छीन झपट कर खा रहे हैं | इस अद्भुत लीला को लोक पितामह श्री ब्रह्माजी एक वृक्ष की ओट से छिपकर निहार रहे हैं | इस विचित्र दृश्य लीला का बालक का आर्त्तत्राण पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा यह वहां से उठकर अपने कमरे में चले आए और उसी का चिंतन करने लगे चिंतन करते करते इन की वृत्ति तल्लीन हो गई | और उनमें इनका इतना अनुराग बढ़ा कि 3 दिन और 3 रात तक इन्हें बाहे जगत का अनुसंधान ही न रहा | यह समाधिस्थ से हुए 3 दिन तक अपने कमरे में ही बैठे रहे | इनके चित्त पर केवल वही चित्र अंकित रहा | यह इनके जीवन में पहला भावावेश हुआ | साथी विद्यार्थी तो इस रहस्य को कुछ भी नहीं समझ सके वह तरह तरह की कल्पनाएं करते रहे |
[17/4 3:30 pm] रघुनाथ चरण रज भिक्षुक: [16/4 10:57 am] रघुनाथ चरण रज भिक्षुक: इसी वर्ष एक और भी घटना हुई पाठशाला में कटक के रहने वाले गंगा धर मिश्र नाम के एक विद्यार्थी थे| वह आपको अपने छोटे भाई के समान समझते थे और सभी प्रकार से आप की देखभाल किया करते थे | कार्यवश वह मेदनीपुर गए और वहां चार पांच घंटों में ही हैजे के प्रकोप से उन का देहांत हो गया | इस दुर्घटना का आपके चित्त पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा इससे आपको सारा संसार नाशवान और नीरस प्रतीत होने लगा | अब आपको सभी का संसर्ग बुरा लगता था और आप सर्वथा ही सबसे अलग होकर उदासीन रहने लगे | यहीं से आप के वैराग्य का आरंभ हुआ |
श्री श्री आर्त्तत्राण जी यथा नाम तथा गुण थे आरंभ से ही आपका चित्त बहुत कोमल था | अपनी आयु में शायद ही आपने कभी किसी पर क्रोध किया होगा कभी-कभी तो दूसरों को क्रोध करते देखकर आपके चित्त पर इतना आघात लगा है कि आप घंटों मूर्छित रहे हैं | आप अध्ययन समाप्त करके घर लौटे तो सभी को बड़ी प्रसन्नता हुई आप भी अपनी पैत्रिक वृत्ति करने लगे | इस प्रकार कुछ समय बीतने पर उस देश में भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा इस अवस्था में लोगों को भूख से मरते और इधर उधर भटकते देख कर आपको बहुत दुख हुआ और आप उनका दुख दूर करने का उपाय सोचने लगे | पास में कितना द्रव्य तो था नहीं जो सभी की बुभुक्षाआग्नी को शांत कर सके अतः आप ने कोई ऐसा अनुष्ठान करने का निश्चय किया जिससे द्रौपदी की बटलोही के समान कोई पात्र या रसायन प्राप्त किया जा सके | अंत में चैत्र शुक्ला 5 संवत 1951 की रात्रि आई उस समय आप किसी से बिना कुछ कहे धोती लोटा और 11 रुपए लेकर आर्त्तरक्षण के साधन की शोध में घर से निकल पड़े | आपको मंत्र सिद्धि के लिए कामाक्षा सबसे अच्छा स्थान जान पड़ा | अतः कुछ दिन कलकत्ता और गोआलंदों में रहकर आप गुवाहाटी पहुंचे | अब आपके पास केवल ढाई रुपया बचा था | उस समय अनुष्ठान करने के लिए ही वहां एक बंगाली तांत्रिक भी आए हुए थे उनसे आपका प्रेम हो गया और उन्हीं की सलाह से आपने वन दुर्गा के मंत्र का अनुष्ठान आरंभ किया | अनुष्ठान सुचारु रुप से चलने लगा उस में कुछ सफलता के चिन्ह भी प्रतीत होने लगे कई बार स्वप्न में भगवती का दर्शन होता था | जप के समय वशिष्ट आदि सिद्ध पुरुषों के दर्शन होते थे | इसी समय आपके चित्त में ऐसे विचार आने लगे– इस अनुष्ठान से क्या होगा एक पात्र मिल भी गया तो क्या हम उससे विश्व के संपूर्ण प्राणियों के दुख दूर कर सकते हैं यह केवल हमारी विडंबना ही है | संसार तो ऐसा ही चलता रहता है इसलिए इस संकल्प को छोड़ना ही अच्छा है हमारे पास से लेने के लिए कितने लोग आएंगे और हम भी क्या सर्वदा जीवित रहेंगे | अतः इस संकल्प को छोड़ना ही अच्छा है | इन ही दिनों पूर्णागिरि नाम के एक महात्मा से आपने भगवान शंकराचार्य कृत विवेक चूड़ामणि सुना | उसने आपके विचारों को बदलने में और भी सहायता दी अतः आपने वह अनुष्ठान बीच में ही छोड़ दिया | परंतु सिद्धि की ओर से आपका चित्त अब भी पूर्णतया उदासीन नहीं हुआ | आपने गुवाहाटी से काशी जाने का विचार किया और कुछ दिन मयूरभंज में रहकर आप काशी जा पहुंचे | इस प्रांत में आपकी यह प्रथम यात्रा थी यहां न तो आपका कोई परिचित था और ना गांठ में कोई पैसा ही था इधर की भाषा भी आप समझते नहीं थे और ना अपनी बात ही किसी को समझा सकते थे | परंतु आप को विश्वास था कि यह माता अन्नपूर्णा की पुरी है वह मुझे भूखा नहीं रखेंगी | अतः आप विश्वनाथ और अन्नपूर्णा के दर्शन कर मणिकर्णिका घाट पर किसी से कुछ न मांगने का निश्चय कर एक खाली गुफा में बैठ गए 3 दिन और तीन रात बीत गई शौच और लघुशंका के लिए भी आप वहां से नहीं उठे किंतु भोजन आदि के विषय में आप से किसी ने कुछ भी नहीं पूछा | आखिर चौथे दिन गुफा से निकलकर आप स्नान के लिए चले उसी समय वहां एक स्त्री आई उसने आपको पंचामृत पान करवाया | फिर विश्वनाथ जी के दर्शन के लिए गए तो वहां एक ब्राह्मण नें आपको अनार दिया | इस प्रकार 4 दिन के उपवास का पारण करके आप पुनः उसी गुफा में आ गए | वहां रात्रि में आपको स्वप्न हुआ कि एक तेजस्वी महात्मा आपसे वैद्यनाथ धाम जाने के लिए कह रहे हैं | अतः एक काशीवासी बंगाली सज्जन से टिकट कटा कर आप बैद्यनाथ धाम चले गए | वैद्यनाथ धाम में अनेकों लोग अपनी किसी कामना की सिद्ध के लिए जीवन पंचामृत पान करते हुए धरना दिया करते हैं | आपने भी सरस्वती सिद्धि के लिए धरना देना आरंभ कर दिया | परंतु पांचवें दिन ही आपकी विवेक वती बुद्धि ने
[17/4 10:48 am] रघुनाथ चरण रज भिक्षुक: विवेक वती बुद्धि ने आप को धरने से भी विचलित कर दिया आप सोचने लगे यदि सरस्वती सिद्ध हो भी गई तो उस से क्या होगा आखिर कालिदास आदि बड़े-बड़े विद्वान भी तो काल के गाल में ही चले गए| इसलिए इसके लिए तब करना व्यर्थ है यह सोच कर आपने धरना छोड़ दिया और आप जगन्नाथपुरी में अपने घर लौट आए | आपके घर लौट आने से सभी को बड़ी प्रसन्नता हुई परंतु आप तो अधिक दिन घर में रहने वाले नहीं थे | इस समय आपकी आयु 20 वर्ष से अधिक हो चुकी थी और एक सुप्रसिद्ध ज्योतिषी ने बताया था कि आपका जीवन तीस 32 वर्ष से अधिक नहीं | अतः घर वालों ने पहले ही आपका विवाह न करने का निश्चय कर लिया था | आप जन्म से ही भोगों से विरक्त रहते थे | घर में भी आपका चित्त किसी के मोह बंधन में बंधा हुआ नहीं था | अब तक भी आपका अधिकांश जीवन निरालंब रहकर ही व्यतीत हुआ था अतः अब आपने विधिवत नैष्ठिक ब्रह्मचर्य की दीक्षा लेने का निश्चय किया | और पुरी धाम में श्री गोवर्धन मठाधीश वर जगतगुरु शंकराचार्य स्वामी श्री मधुसूदन तीर्थ से दीक्षा लेकर आप आर्त्तत्राण मिश्र से ब्रम्हचारी चेतनानंद हो गए | इन दिनों आप की विशेष इच्छा यही थी कि किसी प्रकार उर्ध्वरेता ब्रह्मचारी बना जाए | आप सोचा करते थे कि मेरी ऐसी स्थिति हो कि मैं युवती स्त्रियों की गोद में भी निर्दोष बालक के समान खेलूं | स्त्रियों का अधिक से अधिक संपर्क होने पर भी मेरे चित्त में किसी प्रकार का विकार न हो | इसके सिवा आप की दूसरी इच्छा यह थी कि मेरी सर्वत्र अव्याहत गति हो | लोकांतर और राज महलों में भी मैं बिना रोक-टोक जा सकूं | मनुष्य के चित्त में कोई विकार होने से ही रोक टोक होती है बालक को कोई नहीं रोकता अतः यदि मेरा चित्त निर्विकार होगा तो मुझे कोई क्यों रोकेगा इन आकांक्षाओं से प्रेरित होकर ही अपने वीर्य पर विजय प्राप्त करने का निश्चय किया और इसी उद्देश्य से आप मठ में आने जाने वाले साधुओं से मिलते रहे |
इन ही दिनों आपको किसी सिद्ध गुरु को खोजने की धुन सवार हुई इसके लिए आप मठ छोड़कर बंगाल के मैंमनसिंह ढाका बारीसाल ग्वालपाड़ा आदि कई जिलों में घूमते रहे | परंतु कहीं भी आपको ऐसे महात्मा ना मिले जिन्हें आत्मसमर्पण कर सकें अंत में आप बड़पेटा पहुंचे यहां सहर के पास ही एक ब्रहमचारी का स्थान था | इस समय वह ब्रह्मचारी बीमार थे आपने उन की खूब सेवा सुश्रूषा की | किंतु आठ 10 दिन में ही उनका देहांत हो गया | आप की सेवा से संतुष्ट होकर उन्होंने प्राण परित्याग से पहले आपको ही अपना उत्तराधिकारी निश्चित किया | अतः उन के बाद आप वहां की महंत बन गए वहां रहकर आपने सतचंडी का अनुष्ठान किया उन उस के उपलक्ष में नवरात्र में हवन और ब्रह्म भोजन हुआ इस उत्सव की समाप्ति पर आपको ऐसा अनुभव होने लगा मानो दुर्गा साक्षात आपके सामने खड़ी है | इस समय आपको वाक सिद्धि हो गई आप जिस से जो बात कहते वही सत्य हो जाती थी | आपको लोगों के बहुत से छिपे हुए पाप पुण्य भी मालूम हो जाते थे ऐसा चमत्कार देखकर आपके पास बहुत जनता आने लगी | भैंट की सामग्री और रुपयों का ढेर लग गया | एक-एक दिन में 5 500रुपए आ जाते थे आप की ओर से हर समय कढ़ाई चढ़ी रहती थी नित्यप्रति सहस्त्रों पुरुषों का भोजन होने लगा आप प्रश्न करने वालों की सूरत देखकर ही सब बातें बता देते थे | 18 दिन यही क्रम रहा अंत में विक्षेप अधिक बढ़ जाने से आपके चित्त में कुछ पश्चाताप हुआ | तब स्वयं ही यह सिद्धि निवृत्त हो गई | फिर न तो वैसा अनुभव रहा और न कुछ कहने सुनने की इच्छा ही रही | इसके कुछ दिनों बाद पूर्व महंत जी का शिष्य रामेश्वर की यात्रा से लौट आया | उसने गद्दी के लिए आश्रम की दृष्टियों से अपना दावा किया परंतु बाबा से विशेष प्रभावित होने के कारण बाबा के कहने पर भी ट्रस्टियों ने उस शिष्य को गद्दी देना स्वीकार नहीं किया | अतः एक दिन आपने स्वयं ही उस प्रपंच से निकलने का निश्चय कर लिया और खर्चे के लिए केवल ₹15 लेकर आप वहां से चुपचाप रेल द्वारा गोहाटी चले आए | अब आप आसाम और पूर्वी बंगाल में घूम-घूमकर फिर किसी सिद्ध योगी की खोज करने लगे | परंतु आपको ऐसे कोई योगीराज ना मिल सके जिन्हे पाकर आप की प्यास शांत होती | अंत में इसी उद्देश्य से आपने सारे भारत वर्ष में घूमने का निश्चय किया | और जब आप कलकत्ते से रामेश्वर की ओर जा रहे थे मार्ग में जिला बालेश्वर के किसी गांव के एक बगीचे में ठहरे हुए थे अकस्मात रात्रि में बगीचे के सामने वाले मकान में आग लग गई | मकान में से और सब लोग तो निकल आए किंतु एक नवविवाहिता बहू संकोचवश बाहर ना आए और उसी में घिर गई | और उसके बचने की कोई आशा न रही श्री बाबा से उसका यह संकट न देखा गया अतः आग की परवाह न करके आप घर में घुस गए और उस बालिका को उठा कर बाहर ले आए | परंतु इस प्रकार उस अबला की प्राण रक्षा करने पर भी आप को इस्त्री स्पर्श के कारण बहुत ग्लानि हुई और उसके प्रायश्चित के लिए आपने दो तीन दिन तक अन्न ग्रहण नहीं किया | इस यात्रा में आप कई महात्माओं से मिले तथा रामेश्वर द्वारिका एवं उज्जैन होते हुए हरिद्वार तक गए | तथापि कहीं भी आपको ऐसे महात्मा नहीं मिले जिनमें आपकी पूर्ण श्रद्धा होती | आखिर हरिद्वार से आप फिर कलकत्ते लौट आए यहां आज कल वंग भंग के कारण स्वदेशी आंदोलन चल रहा था | आपको दीन दुखियों के साथ तो सदा से ही सहानुभूति थी अतः आप भी आंदोलनकारियों में मिल गए | दो एक बार आप की गिरफ्तारी भी हुई परंतु अपराध सिद्ध न होने के कारण छोड़ दिए गए | उस समय अनेकों युवकों को फांसी लगते देख आप को बड़ा खेद होता था | परंतु आपके पास ऐसी कोई शक्ति तो थी नहीं जिससे उनके दुख को दूर कर सकते |
[17/4 11:07 am] रघुनाथ चरण रज भिक्षुक: आखिर एक महात्मा के समझाने से आपने वह प्रवृत्ति छोड़ दी और सन्यास लेने का निश्चय कर लिया | आप जगन्नाथपुरी आए और अपने गुरुदेव श्री गोवर्धन मठाधीश्वर वर्ष संवत 1964 की कार्तिकी पूर्णिमा को सन्यास दीक्षा ले ली | अब आप ब्रह्मचारी चेतनानंद से स्वामी पूर्णानंद तीर्थ हो गए | सन्यास के कुछ ही दिन पश्चात आप गुरु जी से आज्ञा ले काशी की ओर चले | चलते समय दंड कमंडल समुद्र में फेंक दिए आप रेलगाड़ी द्वारा काशी जा रहे थे मार्ग में एक जगह गाड़ी बदलनी चाहिए थी किंतु आपको ऐसा करने का ध्यान रहा है काशी का टिकट लिए छपरा पहुंच गए यह देख टिकट चेक कर बहुत बिगड़ा और कुछ मारपीट करके आपको गाड़ी से उतार दिया | इस घटना ने आपके जीवन में एक स्थाई परिवर्तन कर दिया कभी-कभी कोई छोटी सी बात भी बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है | महापुरुषों के जीवन में ऐसी बातें बहुत देखी जाती हैं भगवान बुद्ध को एक शव को देखने से ही वैराग्य हो गया था और इसी घटना ने उन्हें एक सुकुमार राजकुमार से कठोर तपस्वी बना दिया तथा गोस्वामी तुलसीदास जी को स्त्री की थोड़ी सी व्यंग्योक्ति ने ही संसार से छुड़ा कर सदा के लिए श्री राम चरणों में समर्पित कर दिया था |
[17/4 12:57 pm] रघुनाथ चरण रज भिक्षुक: ऐसी घटनाएं हृदय की सजीवता को भी प्रकट करती हैं जिनके हृदय मुर्दे हैं वह न जाने कितने तिरस्कार सहते हैं और तब भी उन्हें चेत नहीं होता | आप गाड़ी से उतरकर घाघरा नदी के तट पर आए वहां स्नान किया और आजीवन किसी भी सवारी में न चढ़ने की प्रतिज्ञा कर ली | तब से अनेक प्रकार की प्रवृतियां होने पर भी आपने बड़ी दक्षता और कुशलता से इस नियम का पालन किया है | तथा अनेक सामूहिक कार्यों को संभालते हुए भी अपनी स्वतंत्रता में रंचकमात्र भी अंतर नहीं आने दिया | इस प्रतिज्ञा का त्याग तो आप ने गत फाल्गुन मास के बांध के उत्सव पर ही किया है | किंतु उस त्याग में तो इसके ग्रहण की अपेक्षा कहीं अधिक महत्व है इसका विवरण पाठक वृंद आगे यथास्थान देखेंगे |
छपरा से कई स्थानों में होते हुए आप काशी पहुंचे बीच में गोमती तट के एक स्थान के जो राजभार स्टेशन के समीप है आप महंत हो गए किंतु इस मेहनती को भी आप पहले ही की तरह छोड़ कर चले आए थे | काशी पहुंचने पर आप के चित्र की एक विचित्र सी अवस्था हो गई आप अपने पास कोई पात्र भी नहीं रखते थे | केवल एक कंबल लपेटे जहां-तहां पड़े रहते थे अभी तक कोई सिद्ध योगी न मिलने के कारण आपका कोई नियमित साधन भी आरंभ नहीं हुआ था | इसलिए चित्र में बड़ा असंतोष रहता था चातुर्मास्य के समीप था अतः एक महात्मा के कहने से आप काशी से 4 कोस पश्चिम की ओर एक गांव में चले गए | वहां कुछ महात्मा रहते थे उनके साथ ही आपने चातुर्मास्य किया | वहां कुछ वेदांत चर्चा चलती रहती थी उन महात्माओं के संसर्ग से आपको उपनिषद ब्रह्मसूत्र गीता तथा योग वशिष्ठ आदि वेदांत ग्रंथ सुनने का भी अवसर मिला | इससे आपकी जिज्ञासाग्नी जागृत हो गई | अब तो आपको कुछ भी अच्छा नहीं लगता था अहर्निश यही चिंता रहती थी कि किस प्रकार चित्त शांत हो | किस प्रकार सत्य का अनुभव हो और किस प्रकार यह विश्व प्रपंच की पहेली सुलझे ग्रंथों के देखने से तो कोई बात समझ में नहीं आती थी और दूसरा कोई उपाय दिखता ही नहीं था | इस प्रकार इस संत समागम ने आपके चित्त को सिद्धि और चमत्कारों की चकाचौंध से हटाकर परमार्थ की खोज में लगा दिया | बस चातुर्मास्य समाप्त होने पर आप वहां से गंगा जी के किनारे किनारे पश्चिम की ओर चल दिए | परमार्थ प्राप्त की उत्कंठा ने आपको बहुत ही बेचैन कर दिया कभी कभी तो मील दो मील चलकर ही दिन भर जंगल में ही पड़े रहते थे | इस प्रकार धीरे धीरे पांच छ: मास में प्रयाग पहुंचे | वहां दारागंज के पास एकांत स्थान में एक मंदिर के पीछे छोटी सी कुटी थी वह स्थान बहुत गंदा | वहां कोई आता जाता नहीं था अतः एकांत देकर आपने उस कुटी मैं ही आसन लगा दिया और भीतर से के किवाड़ बंद कर लिए 3 दिन उसी में बंद रहने का निश्चय कर के बैठ गए ना खाया और ना शौच या लघुशंका को ही गए | जप ध्यान आदि में तो इस समय आपकी कोई श्रद्धा नहीं थी आप तो कोई दैेवी आदेश पाने की प्रतीक्षा में थे | जेष्ठ मास की भीषण गर्मी थी फिर भी जिज्ञासाअग्नि के आगे वह आपको कुछ भी जानना पड़ी | परंतु इस प्रकार 3 रात और 3 दिन तक बंद पड़े रहने पर भी आपको कोई अनुभव नहीं हुआ | आखिर निराश होकर आप बाहर निकले भीतर पड़े पड़े शरीर जकड़ गया था कुछ स्वस्थ होने पर आप वहां से आगे बढ़े | रास्ते में जहां तहां महात्मा भी मिलते थे परंतु आपकी श्रद्धा को कहीं आश्रय नहीं मिलता था वर्षा भी आरंभ हो गई थी इसलिए इसके कारण भी कई बार बहुत कष्ट सहना पड़ा | परंतु आपके हृदय में जो आग जल रही थी उसके आगे किसी भी विघ्न और बाधा की ओर देखने का अवकाश ही कहां था आखिर आप चलते-चलते फतेहपुर जिले के एक स्थान पर पहुंचे | यहां भागीरथी के तट पर एक प्राचीन शिवालय था आस पास कुछ और भी कुटिया थीं | स्थान अत्यंत निर्जन और शांत था भगवान भास्कर दिनभर की लंबी यात्रा से श्रांत होकर प्रतीची की गोद में विश्राम लेने के लिए जा रहे थे | आप चुपचाप बैठ कर श्री गंगा जी की अभंग अंगभंगी को निहारने लगे परंतु उसने भी आपको कुछ शांति नहीं दी | उससे तो वह आग और भी सुलग उठी अब आपको अपना जीवन भार प्रतीत होने लगा और आपने उसे गंगा जी की गोद में लीन करने का विचार किया | बस आप ने चादर उतार कर अलग रख दी और तुंबा गंगा जी में फेंक दिया अब स्वयं कूदने की बारी आई उस समय चित में कुछ हिचक हुई इस प्रकार प्राण निछावर करने में आपको कोई सार दिखाई न दिया | सोचने लगे मरने से ही क्या होगा विचार करना चाहिए संभव है विचार करते करते कुछ अनुभव हो जाए | यह सोचकर आप शिवालय के भीतर गए चित्त में नास्तिकता कैसे भाव तो बढ़े हुए ही थे | अतः शिवलिंग से पेड़ लगाकर लेट गए लेटे-लेटे तरह-तरह के संकल्प होने लगी आंखें जपने लगी और धनराशि आ गई भगवान शंकर भी बड़े भोले बाबा है कभी कभी वह तिरस्कार के बदले भी अक्षय पुरस्कार दे देते हैं | उनके विषय में बहुत सी ऐसी घटनाएं प्रसिद्ध हैं यहां भी ऐसा ही हुआ | आपने देखा दो विरक्त परमहंस पधारे हैं उनके शरीर हष्ट पुष्ट और गौरकांति से देदीप्यमान है शरीर में दिव्य तेजोमय काषाय वस्त्र हैं और उन्नत और विशाल भाल पर स्वच्छ भस्म सुशोभित है कंठ में रुद्राक्षम माला और हाथ में कमंडल है | मानव साक्षात श्री नरनारायण ही आपको भव बंधन से मुक्त करने को पधारे हों
[17/4 2:07 pm] रघुनाथ चरण रज भिक्षुक: उन्हें देखकर आप खड़े हो गए और सृष्टि तत्व के विषय में प्रश्न करने लगे | आप 2 प्रश्न करते उसी का वे बड़ा समाधान कारक उत्तर दे देते थे यह क्रम बड़ी देर तक चलता रहा धीरे धीरे एक-एक करके आपकी सारी ही उलझनें सुलझ गई | अंत में उन दिव्य महापुरुषों ने दो श्लोक याद करने को कहा-
नेति नीतीति नीतीति शेषितं यत्पं पदम |
निराकर्त्तुंमशक्यत्वात्तदस्मीति सुखी भव | |१||
जड़तां वर्जयित्वैतां शिलाया हृदयं च यत |
अमनस्कं महाबाहो तन्मयो भव सर्वदा | |२||
[17/4 3:14 pm] रघुनाथ चरण रज भिक्षुक: इस अवस्था से उत्थान होने पर आप सब प्रकार से स्वस्थ हो गए आपकी सभी शंकाएं निवृत हो गई हृदय की सारी ग्रंथियां खुल गई अब आपको सारा दृश्य अपनी ही दृष्टि का विलास दिखाई देने लगा | ऐसा अनुभव होता था मानो सारा दृश्य शून्य रूप है इसका कोई आधार नहीं है इस शून्या शून्य से विलक्षण इसका आधारभूत एकमात्र में ही अखंड परिपूर्ण तत्व हूं | मुझसे भिन्न और कुछ है ही नहीं यह अनंत कोटि ब्रम्हांड मुझ में ही अध्यस्त हैं | और इनका अधिष्ठानभूत में इन से सर्वथा असंग हूं | यह अनुभव इतना स्पष्ट था मानो नेत्रों से दिख रहा हो इससे आपके चित्त को पूर्ण शांति और कृत कृत्यता का अनुभव हुआ | ऐसा जान पड़ा मानो मैं ही संपूर्ण ब्रह्मांड का सर्वभोमसम्राट हूं इस प्रकार आपकी सारी दीनता और बेचैनी दूर हो गई | आप वास्तव में पूर्णानंद स्वरुप ही हो गए | अब आपका चित्र बहुत उपराम रहने लगा यद्यपि तत्व साक्षात्कार के पश्चात विद्वान का कोई कर्तव्य नहीं रहता उसकी सारी कामनाओं और वासनाओं का मूलोच्छेद हो जाता है तथापि बोध का यह स्वभाव ही है कि वह विद्वान में उत्तरोत्तर आत्म प्रेमा का उन्मेष करे ‘बोधस्योपरति: फलम्’ | इस नियम के अनुसार आप अधिकतर ध्यानावस्था में ही स्थित रहने लगे | आपने यह निश्चय किया कि मुझे ध्यान द्वारा ऐसी गंभीर स्थिति प्राप्त करनी चाहिए जिससे प्राण नि:शेष हो जाए | आप का विचार था कि इस प्रकार जो निस्पंदता प्राप्त होती है वह प्राणायाम आदि के द्वारा प्राप्त होने वाले प्राण निरोध से बहुत ऊंची कोटि की चीज है | उसी की सिद्ध के लिए आप सिद्धासन से बैठ गए और अभ्यास करने लगे | इस प्रकार आप कुछ महीने एक स्थान पर रहते थे और फिर गंगा जी के किनारे किनारे चल कर आगे बढ़ जाते थे इस प्रकार स्थान परिवर्तन करते हुए भी आपका ध्यानाभ्यास निरंतर चलता रहता था | धीरे धीरे आप का अभ्यास खूब बढा और अनेक चमत्कार भी हुए | किंतु उनकी उपेक्षा करते हुए आप साक्षी रूप में ही स्थित रहे | इससे आपकी स्थिरता और शांति में उत्तरोत्तर विकास होता गया | कुछ ही दिनों में आपको स्वप्न में और ध्यानावस्था में शुकदेव वामदेव आदिऋषि मुनियों के दर्शन होने लगे | धीरे धीरे आप कानपुर बिठूर होकर बरुआ घाट पहुंचे | यहां श्री ज्ञान आश्रम जी नाम के एक प्राचीन महात्मा रहते थे उंहें 30 वर्ष इसी स्थान पर हो गए थे यह बड़े ही सरल संयमित और सत्यनिष्ठ संत थे | उस प्रांत में उनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी | हमारे पूज्य श्री बाबा के प्रति उनका व्यवहार बड़ा स्नेहपूर्ण था | और पूज्य बाबा भी इनमे गुरु वत श्रद्धा रहते थे | वहां आ रहकर श्री बाबा ने उन की खूब सेवा की परंतु संत जी आप से कोई काम नहीं कराना चाहते थे हमारे श्री बाबा उनसे बिना कहे और छिपकर भी उनकी सेवा करते थे रात्रि में उनका सोने का समय 2:00 से 4:00 बजे तक था किंतु आप सर्वदा उनसे पीछे सोते और पहले उठते थे | वहां बगीचे में आम के प्रायः पचास पेड़ थे उनमें से एक पेड़ के आम बहुत मीठे होते थे सब लोग उन्ही की ताक में रहते थे | अतः आप रात्रि में जब सब लोग सो जाते तो स्वामीजी के लिए उस पेड़ के सब आम अपने कटीवस्त्र में ले आते थे | एक दिन स्वामी जी ने अपने आश्रम वासियों से कहा कि इस फुलवारी की जमीन ठीक नहीं है तथा इसके गमलों की भी सफाई हो जानी चाहिए तब आपने किसी को भी मालूम ना हो इस प्रकार रात्रि में ही वह सब काम कर डाला | आपकी ऐसी निष्कपट और सच्ची सेवा से श्री ज्ञान आश्रम जी बहुत प्रसन्न थे और अन्य आश्रम वासियों से आपकी भूरि-भूरि प्रशंसा किया करते थे | इस प्रकार बरुआ घाट में नौ 10 महीने रह आप फिर उत्तर की ओर चल पड़े |
[19/4 3:36 pm] रघुनाथ चरण रज भिक्षुक: कातट ही आपका निर्दिष्ट मार्ग था | मार्ग में जगह-जगह महात्माओं से सत्संग होता रहा आपकी ध्यान निष्ठा वैराग्य और सरलता सभी के चित्तों को मोह लेती थी | फर्रुखाबाद पहुंच कर आपने गंगा तट को छोड़ कर नहर का किनारा पकड़ा यहां एक दिन आपको दिनभर दिक्षा नहीं मिली | रात्रि में बड़ी जोर की भूख लगी पास में कोई गांव भी नहीं था इस समय श्री भगवान ने अपने अनन्यचेता भक्तों की योग क्षेम वहन की प्रतिज्ञा पूरी कर के दिखा दी | सभी और चंद्रमा कि इसने क्रांति फैली हुई थी इसी समय एक बालक और बालिका ने आकर आपसे पूछा बाबा तुम रोटी खाओगे | बाबा ने कहा हाथ आऊंगा तुम्हारा घर कहां है तुम किसके बालक हो | बालक बोले यहां से पास ही हमारा घर है हम माहेश्वरी वैश्य हैं | इधर खेलने के लिए चले आए हैं वे दोनों बालक बड़ी ही सुंदर थे उन्हें देखने के लिए बार-बार आपका मन आकर्षित हो रहा था | वीर बालक थोड़ी ही देर में दो मोटी मोटी रोटी और केले का शाक ले आए | अभी तक आप केवल ब्राह्मणों की ही भिक्षा करते थे परंतु उन बालकों की कुछ ऐसी मोहिनी शक्ति पड़ी कि आपने बिना कोई आपत्ति किए हुए रोटियां ग्रहण कर लीं | बालक तो कुछ देर इधर-उधर घूम कर चले गए परंतु आपका मन उन्हीं में उलझा रहा सवेरे 4:00 बजे आपकी आंखें खुली तो फिर भी वही घूमते दिखाई दिए उस समय उन्होंने मट्ठा लाकर आपको दिया और आपने शौचादि से निवृत हुए बिना ही उसे पी लिया | वहां से उठने पर आपने पता लगाना चाहा कि देखें यह बालक कहां रहते हैं परंतु पूछने पर यही मालूम हुआ कि यहां से दो 2 मील दूर तक कोई गांव है ही नहीं | इस घटना का आपके चित्त पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि यद्यपि साकार रूप में इस समय आपका विशेष प्रेम नहीं था तब भी कई दिनों तक इस प्रसंग का स्मरण होने पर आप का हृदय भर आता था | यहां घूमते घूमते आप मोहनपुर पहुंचे इस गांव से आप का विशेष संबंध रहा है यहां से आपके जीवन में कुछ नवीनता भी पाई जाती है अब तक आप के स्वभाव में बड़ी गंभीरता और उदासीनता ही पाई जाती थी किंतु यहां आप एक अबोध बालक की तरह रहते थे यहां के भक्त आपको अपने घर का आदमी समझते थे और आप के साथ खूब खुलकर खेलते थे खानपान के समय भी काफी विनोद होता था किसी के घर भिक्षा करने जाते और भोजन में देरी होती तो आप उसका घर का काम करने लग जाते थे कभी शाक काटते कभी मसाला पीस देते थे तथा कभी कोई और काम कर देते किंतु यहां आपका सारा समय क्रीडा कौतुक में ही बीता हो ऐसी बात नहीं है | यहां यहां आप का अभ्यास भी खूब बढ़ा यह खेल तो अपने आप को वहां के लोगों से छिपाने के लिए अथवा प्रच्छन्न भाव से आत्मानंद का रसास्वादन करने के लिए ही था | या कहिए कि यह तो एक आत्माराम मुनि की बालवत चर्या ही थी | यहां आपके ध्यान की बहुत ऊंची स्थिति हो गई थी आप घंटों निश्चल भाव से बैठे रहते थे शरीर का रंचक मात्र भी भान नहीं रहता था | कहते हैं उस समय आप की खुली हुई आंखों में मक्खियां घुस जाती थी तब भी आपके शरीर की कोई चेष्टा नहीं होती थी | कभी कभी बहुत देर तक चित्त निर्विकल्प स्थिति में रहता था बहुत दिनों से आपका जो प्राणों की निस्पंदनता का संकल्प था वह भी यहां पूरा हो गया था | यद्यपि आपकी निष्ठा निर्विशेष ब्रह्म में ही थी तो भी कभी-कभी स्वयं ही आपको भगवान श्री राम एवं कृष्ण आदि का रूप और उनकी दिव्य चिन्मय लीलाओं के भी दर्शन होने लगते थे | यह अनुभव इतना स्पष्ट होता था कि ध्यान टूट जाने पर भी उसका आभास नेत्रों के सामने बना रहता था |
[19/4 2:34 pm] रघुनाथ चरण रज भिक्षुक: इस प्रकार मोहनपुर के यह आठ नौ माह बड़े आनंदपूर्वक बीते| वहां से चलकर आप कासगंज होते हुए रामघाट पहुंचे | तब से ही आपका सबसे अधिक रहना सहना रामघाट और अनूप शहर के मध्यवर्ती गंगा तट पर ही हुआ है | इस क्षेत्र में भी आप अधिकतर रामघाट और कर्णवास में ही रहे हैं | केवल गत आठ दस वर्ष से आप श्री वृंदावन में आश्रम बन जाने के कारण अब अधिकतर वहां ही रहने लगे हैं| तथापि आपकी अधिकांश तपस्या तो रामघाट और कर्णवास में ही हुई है | रामघाट में आप संवत 1972 में पहुंचे थे उसके बाद 10 वर्ष तक आपका जीवन अत्यंत वैराग्य और उपरति में ही व्यतीत हुआ था | आपकी इस दीर्घकालीन तपस्या से धीरे-धीरे आपका यश सौरभ प्रांत में फैलने लगा यद्यपि आप जनसंपर्क से बहुत दूर जंगल की झाड़ियों में छिपे रहते थे तो भी प्रेमी भक्त आप को ढूंढ ही लेते थे | उस समय स्त्रियों के संसर्ग से आप को इतनी घृणा हो गई थी कि आपने यह नियम बना दिया था कि यदि कोई स्त्री मेरी दृष्टि के अंतर्गत आ गई तो मैं यह स्थान त्याग दूंगा | इसलिए उस समय भक्तजन यह विशेष ध्यान रखते थे कि कोई माई आप की कुटी के आसपास ना आ जाए | ध्यान की ऐसी गाढ स्थिति हो चुकी थी कि आप आठ आठ घंटे निश्चित आसन से बैठे रहते थे | रामघाट में आप शरद पूर्णिमा तक रहे यहां से नरवर बिहार और कर्णवास होते हुए भ्रगुक्षेत्र पधारे | इसी समय हमारे चरित नायक पूज्यपाद श्री श्री 108 श्री हरि बाबा जी महाराज से आपकी भेंट हुई | इसके बाद बहुत दिनों तक आप जन संसर्ग से अत्यंत दूर एकांत सेवी विरक्त संत के रूप में ही रहे | आपनें दस12 वर्ष बड़ी कठोर साधना की बहुत दिनों तक केवल 8 ग्रास खा कर रहे | रात्रि में कभी लंबे होकर नहीं सोते थे बैठे बैठे ही कहानियों के बल झुक कर कुछ झपकी ले लेते थे | अधिक समय तो ध्यान समाधि आदि में ही व्यतीत होता था | इस प्रकार जैसे जैसे तपस्या बढ़ी वैसे वैसे ही आप का यश सौरभ फैलने लगा | उससे आकृष्ट होकर अनेकों भक्तजन भी आने लगे | कमल जब खिल जाता है तो भ्रमर वृंद भी स्वयं ही आकर एकत्रित हो जाते हैं | इसी प्रकार जिन महानुभावों का हृदय कमल परमात्म तत्व रूप प्रभाकर की किरणों का दर्शन पाकर विकसित हो जाता है उनके पुण्य पराग की दिव्य गंध से आकृष्ट होकर स्वयं ही उनके आसपास भक्त भ्रमरों की भीड़ एकत्रित हो जाती है | वह भले ही स्वयं को छिपाना चाहे किंतु जिस विशेष सत्व की किरणे निरंतर उनके दिव्य विग्रह से निकलती रहती हैं उसके लालची अधिकारी पुरुष किस प्रकार उन्हें छोड़ सकते हैं | इसी से लोकेष्णा से कोसों दूर रहने वाले स्वआत्माराम मुनियों के पास भी अनेकों जिज्ञासु उन्हें वन पर्वत आदि में ढूंढ ढूंढ कर पहुंच जाते हैं | तथा उनके दर्शन स्पर्श और वचनों से अपने नेत्र कर और स्रोतों को कृतार्थ करते हैं | अतः आपके पास भी अब उत्तरोत्तर भक्तों एवं जिज्ञासु जनों का आना-जाना बढ़ने लगा धीरे धीरे आप भी अपना संकोच शिथिल करके यथा प्राप्त परिस्थिति का अनुसरण करने लगे | अब तो पुरुष बालक स्त्री सभी अपने अपने अधिकार के अनुसार लाभ उठाने लगे आप भी उनकी योग्यता के अनुसार उन्हें ज्ञान योग भक्ति और कर्म का उपदेश देने लगे | तब से लेकर अब तक आप कहां-कहां किस-किस परिस्थिति में रहे और आपके द्वारा परमार्थ प्रचार का कितना कार्य हुआ इसका निरूपण करना हमारी शक्ति के बाहर है आप के तत्वाबधान में अब तक सैकड़ों उत्सव यज्ञ और अनुष्ठान आदि हुए हैं आपकी कृपा से हजारों आदमी भगवत भजन में प्रवक्ता हुए हैं सैकड़ों जिज्ञासुओं की ज्ञान पिपासा शांत हुई है और हजारों भंडारे हुए हैं आप जहां भी रहते हैं वहां नृत्य उत्सव साहिब प्रतीत होता है साल में गुरु पूर्णिमा जन्माष्टमी शरद पूर्णमा अन्नकूट गीता जयंती होली रामनवमी अक्षय तृतीया नवरात्रि आदि के दस बारह उत्सव तो आपके यहां निश्चित रूप से होते हैं |
[19/4 3:28 pm] रघुनाथ चरण रज भिक्षुक: इसके अतिरिक्त समय समय पर और भी अनेकों भंडारी कथा कीर्तन आज होते ही रहते हैं | आज आप का क्या स्वरुप है उसे हम क्या समझ सकते हैं आप के दरबार में स्त्री पुरुष बालक वृद्ध दरिद्र और धनवान सब का समान रूप से प्रवेश है आप के मुख से ज्ञान और प्रेम का जो श्रोत प्रवाहित होता है उसमें आप्लावित होकर अनेकों अधिकारी कृतकृत्य हो चुके हैं अनेकों विषई संसार से उपरत होकर भगवत दृश्य के रसिक बन चुके हैं | तथा शास्वत शांति की खोज में भटकते हुए अनेकों जिज्ञासु उस परम पद की झांकी कर चुके हैं जिसे पाने पर कुछ और पाना शेष नहीं रहता | अपनी स्थिति तो वह स्वयं ही जाने हमारी तो केवल यही अभिलाषा है की श्री महाराज जी के साथ हम श्री बाबा की भी शांति मई छत्रछाया का निरंतर आनंद लेते रहे | श्री महाराज जी पूज्यपाद श्री हरि बाबा जी महाराज के साथ श्री बाबा का समागम पहले-पहल तो भेरिया में हुआ | उसके पश्चात बाबा अधिकतर श्री गंगा जी के दाहिने तट पर अनूपशहर से रामघाट तक के प्रांत में रहे और श्री महाराज जी दूसरी ओर खादर में रहे | हमारे श्री महाराज जी की पहले तो वेदांत की ओर ही प्रवत्ति थी | परंतु फिर आपका झुकाव पूर्णतया भक्ति की ओर हो गया और श्री श्री 108 श्री हरि बाबा जी महाराज के द्वारा आस-पास के गांव में भगवान नाम कीर्तन का प्रचार होने लगा | आरंभ में श्री हरि बाबा जी महाराज बाबू हीरालाल जी पंडित श्रीराम जी महाशय सुखराम गिरी जी और भक्त प्रवर हुलासी आदि कुछ इने-गिने भक्तों को लेकर श्री हरि नाम का कीर्तन और भगवत लीलाओं का अभिनय किया करते थे | श्री महाराज जी का श्री बाबा सी कभी-कभी मिलना तो हो जाता था किंतु इन संकीर्तन और लीला आदि में कभी बाबा के सम्मिलित होने का अवसर न हुआ | भक्तों से श्री महाराज के विषय में सुनकर बाबा के मन में यह कौतुक देखने का संकल्प होने लगा | सन 1922 में बांध बना | उसके बाद सन 1923 के उत्सव में श्री महाराज जी ने बाबा को बुलाने के लिए बौहरे किशन लाल को भेजा | तब श्री बाबा बांध पर पधारे और श्री महाराज जी की कीर्तन तथा कुछ लीलाएं देखी पहली बार देखने पर ही श्री बाबा का हृदय श्री महाराज जी पर मुग्ध हो गया और तब से सभी उत्सव और सत्संग दोनों की उपस्थिति में ही होने लगे |
किंतु फिर भी श्री महाराज जी और श्री बाबा की रहनी सहनी एवं निष्ठा में बहुत अंतर है कीर्तन का प्रचार पीछे बाबा के परिकर में भी खूब हुआ परंतु आपने स्वयं कभी कीर्तन नहीं कराया श्री बाबा तो केवल साक्षी रूप में निश्चल होकर विराजे रहते हैं और कीर्तन कारों को अव्यक्त रूप से शक्ति एवं भाव प्रदान करते हुए उनका नियंत्रण करते रहते हैं | हमारे श्री महाराज जी हरि बाबा जी महाराज को समय की पाबंदी का पूर्ण ध्यान रहता है उसमें एक मिनट भी आगा पीछा करना आपको सहन नहीं होता परंतु बाबा स्वभाव से ऐसे किसी बंधन में बंधे रहना पसंद नहीं करते | वह तो अवधूतों की तरह लापरवाह है यदि ध्यान में बैठे हैं तो बैठे ही हुए हैं पता नहीं कब उठेंगे यदि चल रहे हैं तो एक-एक दिन में 25 से 30 मील तक पार कर जाते हैं कहीं घर घर जाकर भिक्षा करने लगे तो पता नहीं कितने घरों में जाएंगे | कभी-कभी श्री बाबा को एक-एक दिन में 50 -50 घर भिक्षा करनी पड़ी है | हमारे चरित नायक श्री हरि बाबा जी महाराज पराया एकांतवासी पसंद करते हैं और उत्सव आदि के समय ही वे जनसाधारण के संपर्क में आते हैं | इसके सिवा अन्य समय उनके किवाड़ बंद रहते हैं फिर कोई आदमी नहीं मिल सकता | किंतु श्री बाबा का तो खुला दरबार है | सवेरे चार या 5:00 बजे से रात्रि के 10 या11 बजे तक कोई भी व्यक्ति उनके पास जा सकता है | श्री बाबा के भक्त अपने अपने भाव और रुचि के अनुसार पत्र पुष्प आदि से श्री बाबा का पूजन करते हैं गुरुपूर्णिमा आदि विशिष्ट अवसरों पर तो एक दिन में हजार हजार आदमी श्री बाबा का पूजन करते हैं किंतु हमारे चरित नायक श्री महाराज जी का तो सामान्यतया चरण स्पर्श करना भी कठिन है | चंदन और पुष्प माला से भी कोई बिरले हठीले भक्त ही उनका सत्कार कर सकते हैं | श्री बाबा एक ज्ञान निष्ठ जीवन मुक्त महापुरुष है किंतु हमारे श्री महाराज जी की प्रधान निष्ठा साकार भक्ति है | इतना सब होते हुए भी दोनों ने दोनों को खूब निभाया है श्री महाराज जी की समय निष्ठा का जितना आदर बाबा ने किया है उतना शायद ही किसी और ने किया होगा उत्सवों में आप सदा सर्वदा समय पर पहुंच जाते हैं और यदि किसी कारणवश पहुंचने की संभावना नहीं होती तो पहले से ही सूचित कर देते हैं | [20/4 11:07 am] रघुनाथ चरण रज भिक्षुक: जिस समय खादर प्रांत में संकीर्तन की बार आई और पूज्यपाद श्री श्री 108 श्री उड़िया बाबा जी महाराज के भक्त परिकर ने भी इस को अपनाया तब कुछ विरत संत और पंडित जन इसका विरोध करने लगे| कोई कहता यह शास्त्र विरुद्ध है और कोई कहता सर्व साधारण के लिए प्रणव का उच्चारण निषिद्ध है अतः श्री हरि बाबा जी महाराज को कीर्तन के आरंभ में प्रणव की ध्वनि नहीं करनी चाहिए | इन सब विरोधों के उठने पर भी हमारे श्री श्री 108 श्री हरि बाबा जी महाराज उदासीन और शांत ही रहे | परंतु पूज्यपाद श्री श्री 108 श्री उड़िया बाबा जी महाराज ने इनके समाधान कारक उत्तर दिए और श्री हरि बाबा जी महाराज की कीर्तन पद्धति को अक्षुण्ण रखा | आप उन दिनों कहा करते थे- “मैं तो जो शब्द श्री हरि बाबा जी के मुख से निकलता है उसे वेद वाक्य से भी बढ़कर मानता हूं संत की महिमा वेद न जाने | एक सच्चा संत जो कुछ करें वह ठीक है उसका आचरण ही शास्त्र है | मुझे तो हर बाबा जैसा चरित्रवान और देवी संपद का भंडार कोई भी संत नहीं देख पड़ा मुझे तो उनसे प्रेम है अतः वह जो कुछ करते हैं वही मुझे अच्छा लगता है |”

हमारे स्त्री महाराज जी श्री श्री 108 श्री हरि बाबा जी महाराज के उत्सवों के समय भोजन और समागत अतिथियों के सत्कार की सारी व्यवस्था पूज्य श्री श्री 108 श्री उड़िया बाबा जी महाराज के हाथ में ही रही है | श्री बाबा को भोजन कराने में बड़ा आनंद आता है विशिष्ट प्रेमियों को तो आप भंडारों के समय भी अपने हाथ से परोस कर भोजन कराते हैं | इसके सिवा उस समय जो नवीन सभ्यता के अभिमानी मस्तिष्क प्रधान नवयुवक आ जाते हैं उनके कुतर्कों का समाधान भी व्यवस्था से अतिरिक्त समय में श्री बाबा ही करते हैं | श्री उड़िया बाबा जी महाराज का कथन ऐसा युक्तियुक्त और प्रभावशाली होता है कि उसके कारण अनेकों कर्मठ नास्तिक और आर्य समाजी भी सदा के लिए आपके चरणों में नतमस्तक हो गए हैं | हमारे श्री महाराज जी हरि बाबा जी महाराज और बाबा श्री उड़िया बाबा जी महाराज के सिद्धांतों में भी एक मौलिक अंतर है श्री महाराज जी का विचार है की ज्ञान भक्ति और निष्काम कर्म इन में कोई अंतर नहीं है एक ही व्यक्ति साथ साथ इन का अनुष्ठान कर सकता है और पहले तो अधिकतर साथ साथ ही इनका अनुष्ठान किया भी जाता था | परंतु श्री बाबा कहते हैं किस सिद्ध जनों की तो बात ही निराली है उनके विषय में कुछ नहीं कहता परंतु साधारण जन के लिए साधन काल में अधिक भेद से ज्ञान भक्ति और निष्काम कर्म मैं से किसी एक ही साधन का आश्रय लेना चाहिए | यदि ऐसा नहीं किया जाएगा तो किसी भी साधन में साधक की निष्ठा परिपक्व नहीं होगी और वह अपने लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाएगा |
परंतु यह सब होते हुए भी दोनों का पारस्परिक प्रेम विलक्षण है या तो सचमुच श्री राम और शिव की जैसी जोड़ी है | यह कोरी भावना ही नहीं है इस विषय में कई भक्तों को बड़े अद्भुत अनुभव भी हुए हैं | श्री बाबा की बात श्री महाराज जी कहां तक मानते हैं और श्री बाबा भी श्री महाराज जी का कितना ध्यान रखते हैं इस विषय में एक दो घटनाओं का उल्लेख करना अप्रासंगिक नहीं होगा | एक बार हमारे सरकार श्री श्री 108 श्री हरि बाबा जी महाराज अतिरिक्त परिश्रम तथा अन्य कारणों से बांध पर बीमार पड़ गए | पूर्ण का तो प्रत्येक कार्य पूर्ण ही होता है अतः आप की बीमारी भी पूर्ण ही हुई आप प्रायः मरणासन्न हो गए आपने अपनी कुटी के किवाड़ बंद करा दिए और एक दो सेवकों को छोड़कर और सभी का आना जाना बंद करा दिया | हम लोग तो घबरा गए तब हमने बाबा से प्रार्थना कि आखिर कुछ लोगों के साथ बाबा आप की कुटी पर पधारे और किवाड़ खुलवाकर भीतर गए | श्री बाबा ने सबको बाहर निकलवा दिया और फिर उस मरणासन्न अवस्था में मूर्छित पड़े हुए श्री महाराज जी को उठाकर गाढ आलिंगन किया तथा धीरे से कुछ शब्द भी कहे | श्री बाबा के आलिंगन करते ही श्री महाराज जी पूर्ण सचेत और पूर्ण निरोग हो गए | फिर घंटे भर तक बाबा से अपना दुख रोते रहे उसका सार यही था कि मैं जैसा चाहता था वैसे जीव भगवत सम्मुख नहीं हुए अतः अब इस शरीर का कोई प्रयोजन न समझ कर मैंने इसे त्यागनें का संकल्प कर लिया था | परंतु आपकी आज्ञा होने से अब मैंने यह संकल्प छोड़ दिया है बस आप उसी समय स्वस्थ हो गए | वाह रे लीलाधारी नटवर |
कभी-कभी आप का प्रणय कोप भी चलता है | एक बार गोवा में उत्सव हो रहा था पूज्य श्री गुड़िया बाबा जी महाराज भी उपस्थित थे एक दिन श्री उड़िया बाबा जी महाराज गंगा स्नान के लिए गंवा से बांध की ओर चले आए और रास में नहीं पहुंचे
[20/4 11:36 am] रघुनाथ चरण रज भिक्षुक: बस इसी पर श्री हरि बाबा जी महाराज रूठ गए और दोपहर के सत्संग में कथा भी नहीं कही तथा रात को बिना कुछ कहे सुने अपना कमंडलु लेकर किसी अज्ञात स्थान को चले गए इससे बाबा को बड़ा पश्चाताप हुआ और उस उत्सव को पूरा करके भी आप कुछ दिन वहीं रहे पीछे जब आप से मिलना हुआ तो महाराज जी ने बताया कि उस समय मुझे आप पर गुस्सा आ गया था मैं तो यह सब आप ही के लिए करता हूं और आप लापरवाही कर देते हैं इसी से मैं चला गया था तब से बाबा और भी सतर्क रहने लगे |
इसी प्रकार की एक और घटना भी है | बांध के होली के उत्सव पर बाबा प्रायः शिवरात्रि को पहुंचा करते हैं उस समय श्री श्री 108 श्री हरि बाबा जी महाराज प्रतिक्षण पूज्य श्री श्री 108 श्री उड़िया बाबा की प्रतीक्षा करते रहते हैं | एक बार किसी व्यवस्था से बाबा उस तिथि को नहीं पहुंच सके अतः आप दूसरे ही दिन उत्सव की सारी तैयारी छोड़ कर चले गए | जब यह बात श्री बाबा ने सुनी तब उन्हें बहुत पश्चाताप हुआ |
पिछले दिनों में बाबा का स्वास्थ्य बहुत खराब रहा है अगर उनके स्वास्थ्य लाभ के लिए श्री हरि बाबा जी महाराज ने कई बार स्वयं औषध उपचार किया है | तथा अनेको अनुष्ठान किए और कराई है बाबा का स्वभाव बड़ा कोमल है अपने खान-पान का भी उनका कोई नियम नहीं है | अनेकों खिलाने वाले ठहरे | सब श्री उड़िया बाबा जी महाराज की प्रकृति को भी नहीं समझते | अतः अक्सर श्री बाबा के खान पान में बहुत व्यतिक्रम होता रहा | अभी एक भक्त चाय पिलाकर गया है और तभी कोई दूसरा भक्त ठंडाई ले आया | बाबा तो सभी का मन रखते हैं | यदि ऐसे समय कोई स्वतंत्र विचार का पुरुष मना करने भी लगे तो भी श्री बाबा खिलाने वाले का ही पक्ष लेते हैं | इससे उस मना करने वाले को तो चुप ही होना पड़ेगा | अतः आहार-विहार का व्यतिक्रम आपके सारे जीवन में रहा है उसका विपरीत प्रभाव स्तर तक रुका रह सकता था | अतः अब आपका दिव्य मंगल विग्रह भी रोगों का घर बन गया है इसी से गत होली के उत्सव पर जब पैदल चलने में असमर्थ होने के कारण बाबा ने उपस्थित न हो सकने की सूचना भेजी तो महाराज जी श्री श्री मां आनंदमई के साथ वृंदावन गए और अत्यंत आग्रह करके आपका जीवन भर सवारी में न बैठने का नियम तोड़ने के लिए विवश कर दिया | और फिर बांध पर श्री महाराज जी ने बाबा के खान पान और औषधिकउपचार की कड़ी व्यवस्था की | जिससे श्री बाबा का स्वास्थ्य कुछ सुधर गया है | इसके पश्चात झूसी में रहते हुए भी आप बाबा के स्वास्थ्य लाभ के लिए श्री दुर्गा सप्तशती के पाठ कराते रहे | इस प्रकार दोनों ही का दोनों के प्रति बड़ा घनिष्ठ और निर्मल प्रेम है दोनों ही दोनों के संकेत मात्र पर अपना सर्वस्व निछावर करने को तैयार रहते हैं सचमुच ऐसे ही ऊंचे दर्जे का प्रेम तो मैंने कहीं भी नहीं देखा सुना इस 33 साल की संसद की कहानी लिखने लगूं तो बाढे कथा पार नहीं लहउं इसलिए मैंने संक्षेप में ही उल्लेख किया है | ऐसे अलोकिक महापुरुषों के संबंध में मेरे जैसे अयोग्य पुरुष का कुछ लिखना भी तो केवल साहस मात्र ही है |

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