Shri Hari जीवन परिचय श्री हरि संकलनकर्ता

ज्ञान से प्रेम की ओर page13

" श्रीहरि "

*ज्ञान से प्रेम की ओर*
पहले भेरिया की संत मंडली के प्रसंग में श्री अच्युत मुनि जी का उल्लेख किया जा चुका है अपने समय में वह गंगा तट के सुप्रसिद्ध संतों में से एक थे उनकी मस्तानी मुद्रा गंभीर विद्वतता और बालोपं सरलता से आकर्षित होकर अनेक और सत्संगी और जिज्ञासु खुल के सेवक हो गए थे उनमें कई अच्छे धनाढ्य भी थे विद्यांत ग्रंथों को पढ़ाने की उनकी शैली बड़ी ही सरल और सुबोध सी अतः सेठ गौरीशंकर खुर्जा वाले पंडित रमाशंकर और पंडित श्री लाल अनूपशहर वाले तथा गवा के बाबू हीरालाल और पंडित श्रीराम आदि कई सत्संगी उनसे पंचदशी ब्रह्म सूत्र और वृति प्रभाकर आदि वेदांत ग्रंथ पढ़ा करते थे| इन सबके साथ ही हमारे चरित नायक श्री श्री 108 श्री हरि बाबा जी महाराज भी पाठ सुनने लगे| जिन दिनों श्री महाराज जी गवा में थे श्री अच्युत मुनि जी दीपपुर के घाट पर एक नौका में रहा करते थे वहीं आप नित्य प्रति स्नान के लिए जाते थे और पाठ में सम्मिलित हो जाते थे इसी समय नागपुर के देसी वृद्धिचंद जी पोद्दार के विशेष आग्रह से श्री अच्युत मुनि जी ने वर्धा जाने का निश्चय किया | श्री अच्युत मुनि जी हमारे श्री महाराज जी की सोम्य मुद्रा से पहले से ही आकर्षित थे पता उन्होंने श्री हीरालाल जी से कहा यह संत मुझे बड़े प्रिय जान पड़ते हैं इनकी नासिका से दिव्य गंध आती है यह कोई अच्छे महापुरुष हैं यदि यह हमारे साथ वर्धा चलना चाहे तो पूछ लेना इनका वेदांत पाठ भी चलता रहेगा | इस पर बाबू हीरालाल जी ने श्री महाराज जी से पूछा महाराज जी चलने के लिए तैयार हो गए और निश्चित तिथि पर श्री अच्युत मुनि जी के साथ वर्धा पहुंच गए | वहां आनंदपूर्वक रहकर नियम अनुसार वेदांत का विचार होने लगा श्री अजीत मुनि जी बड़े तेज स्वभाव के महापुरुष थे उन्होंने कह दिया था कि सूर्य उदय होने के समय पर ही आओगे तब ही हम पढ़ाएंगे अन्यथा 5 मिनट की भी देरी हो गई तो हम पाठ नहीं चलाएंगे इसी भय से आप प्रातःकाल 2:00 बजे उठ जाते थे फिर 6 मील दूर नदी पर जाकर सौच स्नान आदि से निवृत्त होकर अपना नियमित आसन व्यायाम आदि करते और थोड़ी देर ध्यान करके ठीक सूर्योदय के समय पर अच्युत मुनि जी के पास पहुंच कर पाठ आरंभ कर देते | उसके बाद जो कुछ पढ़ते उस पर मनन विचार करते | मध्यान्ह में पूजन के उपरांत कुछ विश्राम करके तुंहें स्वाध्याय करते तथा प्राय 3:00 बजे से 5:00 बजे तक श्री अच्युत मुनि जी से मुख से कोई वेदांत की कथा सुनते | और सायंकाल में कुछ भ्रमण कर लेते परंतु सायंकाल की पश्चात आपका कोई प्रोग्राम नहीं था समय खाली न जाए इसलिए आपको किसी और सत्संग की भी खोज थी | इधर-उधर घूमने पर मालूम हुआ यहां से थोड़ी दूर पर समर्थ गुरु रामदास जी का एक प्राचीन स्थान है वहां श्री समर्थ के समय से ही श्री राम जय राम जय जय राम इस मंत्र का अखंड संकीर्तन चल रहा है | समर्थ श्री रामदास स्वामी का नाम हमारी अधिकांश पाठकों से अपरिचित नहीं होगा क्योंकि वह भारत के वीर रत्न छत्रपति महाराज शिवाजी के गुरु थे महाराष्ट्र के भक्त जन तो उनको साक्षात श्री हनुमान जी का अवतार मानते हैं | कहते हैं कि या मंत्र उन्हें साक्षात भगवान श्री रामचंद्र जी ने दर्शन देकर प्रदान किया था | राम रहस्योपनिषद में इस मंत्र का उल्लेख इस प्रकार किया गया है-
* श्री रामेति पदं कदम चोक्त्वा जय राम तत: पदम |
जय दूयं वदेत्प्राज्ञाो रामेति मनुराजक: | |
इस स्थान का नाम हनुमानगढ़ी था इस समय उन्हीं समर्थ की शिष्य परंपरा में इस स्थान की गद्दी पर श्री परांजपे जी महाराज विराजमान थे| परांजपे जी महाराज अंग्रेजी संस्कृत तथा मराठी आदि भाषाओं के अच्छे विद्वान और बड़े भाव भक्त थे शासनकाल में यह स्वयं ही बड़े समारोह के साथ कथा कीर्तन एवं आरती आदि किया करते थे | जब हमारे चरित नायक श्री हरि बाबा जी महाराज को उस स्थान का पता चला तब वे सायंकाल में वहां गए और श्री भगवान तथा भक्त मंडली को प्रणाम करके चुपचाप एक और बैठ गए | इस प्रकार आप निरंतर 3 घंटे तक बैठे रहे उनका संकीर्तन सुनकर आपको बड़ा ही हर्ष और आनंद हुआ और आपने निश्चय कर लिया कि यहां पर नित्य ही आया करेंगे | और आप नित्य प्रति ठीक समय पर वहां पहुंचते और प्रणाम करके ठीक उसी स्थान पर जहां की पहले दिन बैठे थे चुपचाप बैठ जाया करते थे | आप बड़े ही मनोयोग से संकीर्तन सुना करते थे इस से आपको बड़ा आनंद होता आपके जीवन में यह नया ही अनुभव था इससे पहले आपने कभी ऐसा भक्ति और प्रेम रस से भरा कीर्तन नहीं सुना था | यूं तो आप जन्म सिद्ध थे बचपन से ही आपकी वेदांत में निष्ठा थी तथा गुरुदेव के सानिध्य में बाल्यावस्था में ही आपको आत्मसाक्षात्कार हो चुका था वैराग्य इतना बड़ा चढ़ा था कि होशियारपुर में आश्रम की प्रवृति भी सहन नहीं हो सकी और आपको वहां से भागना पड़ा | आपके गुरुदेव के जीवन में यद्यपि ऐसी कई घटनाएं हुई जिनसे आपका गंभीर भगवत्प्रेम प्रगट होता था | कहते हैं उन्हें श्री वृंदावन के सेवा कुंज में श्री प्रिया प्रियतम के साक्षात दर्शन हुए थे तथा उनकी प्रधान निष्ठा ज्ञान में ही थी | परंतु आपको तो संसार में श्री गुरुदेव के हृदय का गुप्त धन प्रकट करना था | अतः यहां से उसी का श्रीगणेश हुआ | संकीर्तन में आपको भाव समाधि होने लगी तथा कष्ट तात्रिक विकारों का उद्गार होकर आपके हृदय की तरंगे उथल पुथलमचाने लगी | आपने हरे को संभालने की बहुत चेष्टा की परंतु आप बेकाबू हो गया | ऐसे भावों को देखकर श्री परांजपे
जी तथा उनके साथियों के चित्तइनकी ओर आकर्षित होने लगे | परंतु आपकी शांत और गंभीर मुखमुद्रा देखकर उनका आपसे कोई प्रसन्न करने का साहस नहीं हुआ | हां जिस स्थान पर श्री महाराज जी बैठते थे अब वहां पर पहले से ही एक अच्छा सा आसन लगा दिया जाता था | और कीर्तन के प्रारंभ में ही एक पुष्प माला माला पहनाकर भगवत प्रसादी चंदन लगा दिया जाता था | और उठते समय बड़े आनंद के साथ आपको भगवत प्रसाद और तुलसीपत्र दी जाती थी | वहां जितने भी कीर्तन प्रेमी आते थे वह सभी आप की ओर आकर्षित हो गए थे कोई इनके स्थिर आसन पर मुग्ध था कोई नीची दृष्टि पर कोई रूप-लावण्य पर और कोई अद्भुत भाव तरंग पर इस प्रकार सभी मुग्ध थे | इस प्रकार यह क्रम कई दिनों तक चलता रहा अब तक आपके जीवन में अध्ययन निष्ठा का ही प्राधान्य था किंतु इस भक्त समाज नें आपका प्रवाह भगवत्प्रेम की ओर मोड़ दिया| यही श्री श्री 108 श्री हरि बाबा जी महाराज के जीवन का परिवर्तन बिंदु था | अब तक सोहम के रुप में जिस तत्व का अनुभव हुआ था उसी में दासोहम भाव से आपका हृदय बंध गया | इस प्रेम बंधन का आनंद बड़ा ही अनूठा था आपने कई बार सेम कहा है कि मुझे गुरुदेव की कृपा से आत्म सुख का पूर्ण अनुभव था परंतु जिस समय दासु हम का अनुभव हुआ तो ऐसा प्रतीत हुआ कि यह आनंद उससे भी विलक्षण है | अपने इस भाव को आप कई दिनों तक रुकते रहे किंतु कहां तक रुकते एक दिन एक साथ ही अश्रु पुलक स्तब्धता स्वेद कंप स्वरभंग वैवर्ण्यऔर मूर्छा यह आठों सात्विक विकार प्रकट हो गए | इनमें से एक दो विकार तो प्राय: भक्तों को हुआ ही करते हैं परंतु आंखों का एक साथ उदय होना या तो श्री वृषभान भान नंदिनी श्रीराधा में सुना जाता है | या कपिलपावनाअवतार महाप्रभु श्री गौर सुंदर में और या उनके पश्चात अब श्री हरि बाबा जी महाराज के इस दिव्य मंगल विग्रह में देखा गया | श्री परांजपे जी महाराज वैष्णव शास्त्रों के मर्मज्ञ और रसज्ञ थे | उन्होंने जब इन के अंगों में इन भावों का एक साथ ही संघर्षण देखा | तो वह आवाक होकर देखते ही रह गए| मेघों से जल की धाराओं के समान आपके नेत्रों से अश्रु वर्षण हो रहा था | प्रत्येक रूम की जड़ में छोटे-छोटे झड़बेर कीसी गांठे पड़कर बार-बार रोम खड़े हो जाते थे और उनसे रुधिर के कण निकल आते थे | शरीर से इतना पसीना निकल रहा था कि जैसे सारे रोम छिद्रों से हमारे से छूट रहे हों जिससे चारों ओर की भूमि गीली हो रही थी | सारे शरीर में ऐसा कंप हो रहा था जैसे कि झंझावात से केले का पत्ता कांप रहा हो | कंठ का स्वर गदगद हो गया था भाव तरंग में कुछ बोलना चाहते थे परंतु स्वर भंग के कारण शब्द स्पष्ट नहीं निकलता था | शरीर का रंग कभी पीला तभी एक दम मेघ श्याम कभी नव दुर्वा दल श्याम कभी स्वेत और कभी रक्त इस प्रकार क्षण क्षण में बदल रहा था
, नेत्र भी कभी कमल के समान प्रफुल्लित कभी अर्धउन्मीलित और कभी मुकुलित हो जाते थे | श्री पराजय पे जी तथा अन्य भक्तों ने उस गार्ड मूर्छा में ही आपको बड़ी श्रद्धा और साहस से उठा लिया और ठाकुर जी के सामने ही एक सुंदर कालीन पर लिटा दिया तब आप बार बार मेघ गंभीर नाद से हुंकार करने लगे | उस दिव्य नाद को सुनकर भक्तों के हृदय में आनंद की तरंगे उठने लगी और सभी को ऐसा प्रतीत हुआ मानो आज हमारा जीवन सफल हो गया |
आज हमारे सामने शुरु मुनि दुर्लभ श्री भगवान साक्षात प्रकट हो गए | अतः आज हमारा मानव जन्म सफल हो गया इंद्र यम वरुण आदि देवगन जिनकी दिव्य स्त्रोतों से स्तुति करते हैं योगी जन निरंतर ध्यान अभ्यास कर के जिन्हें देख पाते हैं तथा वेद शास्त्र आदि जिनका का अनेक प्रकार से गुणगान करते हैं | और देवता एवं मुनियों को भी जिनके वास्तविक रहस्य का पता नहीं लगता वही भगवान आज हमारे दृष्टिगोचर हुए हैं ऐसा भाव जाग्रत होने से एक बार तो भक्त जन स्तंभित रह गए | श्री महाराज जी में इस समय अद्भुत भगवती अभाव का आदेश था वह सब लोगों को देखते देखते पहले तो श्री भगवान की ओर पांव करके लेट गए फिर उठे और भगवान को एक और खिसका कर स्वयं सिंहासन पर जा विराजे ऐसा भगवदीय आदेश कभी-कभी श्रीमन महाप्रभु जी में हुआ करता था | ऐसी अवस्था में भक्तों का अपना कुछ नहीं रहता उसमें भगवदीय चेतना का ही अविर्भाव हो जाता है और उस समय उसके तेज और सामर्थ्य भी अलौकिक हो जाते हैं | उसमें पूर्णतया भगवदीय शक्ति का उन्मेष हो जाता है | यह देखकर भक्तजनों के आनंद का पारावार न रहा उन्हें तो मानो श्री श्याम सुंदर की गिरजा गिर्राज लीला का अथवा श्रीमन महाप्रभुजी की महा प्रकाश अवस्था का ही प्रत्यक्ष दर्शन हो गया | उस समय भक्तों को अपनी अपनी भावना के अनुसार आप में विभिन्न भगवत रूपों के दर्शन हो रहे थे | किसी ने धनुष धारी श्री राम के रूप में किसी मुरली मनोहर श्री श्याम सुंदर के रूप में और किसी ने किसी दूसरे ही रुप में आप की झांकी की | तदनंतर आपने मेघ गंभीर वाणी से कहा भूख लाओ यह सुनकर भक्तों के आनंद का पार न रहा सभी उल्लास में भरकर दौड़े और कोई घर से तथा कोई बाजार से मिठाई फल मेवा दूध दही मक्खन आदि अनेक वस्तुओं को लाकर भोग लगाने लगे | सभी भक्तों ने एक-एक करके भोग अर्पण किया और भगवान ने आनंद से पाया कितना भोग पा गए इसका कोई ठिकाना नहीं पीछे भक्तों ने तांबूल अर्पण किया और प्रभु ने उसे भी स्वीकार किया तत्पश्चात वस्त्रादि की भेंट की गई अंत में प्रभु बोले वर मांगो | यह शब्द सुनकर तो सभी भक्तों हर बढ़ा गए और स्थित न कर सके कि क्या वर मांगे पुरुषार्थ चतुष्टय की मूल साक्षात श्री हर तो सामने विराजमान है और ऐसी कौन सी वस्तु रही जिसे हम मांगे किंतु भगवान बार-बार आग्रह कर रहे हैं इसलिए वक़्त होने विवश होकर अपने स्वजन और बंद बांधवों की हित कामना सेवर मांगना आरंभ किया किसी ने कहा भगवान मेरी इस्त्री मेरे भजन में विद में डालती है उसकी बुद्धि सुधार दीजिए कोई बोला मेरा पिता चालू से भी नहीं है उसकी श्रद्धा संत चरणों में हो जाए किसी ने कहा पर वह मुझे अपनी वक्त प्रदान कीजिए इसी प्रकार सब ने अलग-अलग भर मांगे प्रभु ने कहा हिम्मत तो तदनंतर सभी भक्तों ने आरती और स्तुति कर के श्री चरणों में साष्टांग प्रणाम किया फिर सब लोग ढोल करता लादेन वाद्य ले कर कीर्तन करने लगे अब तो कहना ही क्या था जो ही की टंकी ब्रह्मांड व्यापन इधर से आकाश पाताल गुंजायमान हुआ कि सभी भक्तों आनंद में भर कर नृत्य करने लगे आज का कीर्तन और दिनों जैसा नहीं था आज तो प्रेमावतार श्री सचिन नंदन ही स्वयं भेष बदलकर पुनः इस रूप में प्रकट हुए थे आज सभी भक्त क्या बन गए यह सुनिए-
” संकीर्तनानंद रसस्वरूपा: प्रेमप्रदानै: खलु शुद्धचित्ता:|
सर्वे महान्त: किल कृष्णतुल्या: संसारलोकान परितारयंन्ति||”
( अर्थात वे संकीर्तनानंदस्वरूप थे , संसार को प्रेम प्रदान करने के कारण शुद्ध चित्त हो गए थे |
वह सभी महापुरुष साक्षात श्री भगवान के समान थे जो सभी प्रकार से सांसारिक लोगों का भी उद्धार कर रहे थे|) जब भक्त जन संकीर्तन आनंद में विभोर हो गए तब प्रभु उठकर भक्त मंडली के बीच में आए और स्वयं भी नृत्य करने लगे बस अब तू अद्भुत आनंद सुधा की वर्षा होने लगी प्रभु दोनों भुजाएं उठाकर विचित्र गति से नृत्य करने लगे तब तो अनूठी शोभा हुई प्रभु ने भक्त मंडली के बीच में नृत्य करती हुई श्री गौर चंद्र की कनक कमनीय मूर्ति को ही साक्षात नेत्रों के सामने उपस्थित कर दिया —
“कनकमुकुटकांति चारुवस्त्रारविंदं मधुरमधुरहास्यं पक्वबिंम्बाधरोष्ठं सुवलितललिताड्गं कंबुकण्ठं नटेंद्रं त्रिभुवनकमनियं गौरचंद्रप्रपद्ये”
बस आनंद का बाजार लग गया कोई प्रभु के चरणो में पड़ कर रो रहा है तो कोई खिलखिलाकर हंस रहा है कोई किसी के गले से लिपटा हुआ है तो कोई किसी का मुख चूम रहा है। इस प्रकार सारी ही रात्रि आनंद में बीत गई जब प्रातः काल हुआ तो प्रभु अकस्मात हुंकार करके पृथ्वी पर गिर पड़े । भक्त जनों ने अनेकों उपचार किए तब आपको चेत हुआ सावधान होते ही आप हड़बड़ा कर बोले अरे मैं क्या अभी तक यहीं हूं । क्या मैं पागल हो गया था क्या मेरा दिमाग बिगड़ गया था न जाने मेने बेहोशी में क्या-क्या कुचेष्टाऐं की होंगीं । इन बातों का विचार करके आप सभी भक्तों के चरणों में प्रणाम करने लगे और बड़ी दीनता से बोले आप सब लोग मेरी ढिठाई क्षमा करें । मुझे कभी-कभी यह वायु रोग हो जाता है । इसमें न जाने में क्या-क्या कुचेष्टाऐं कर बैठता हूं । ऐसा कह कर आप फूट फूट कर रोनें लगे| महंत परांजपे जी ने अनेकों प्रकाश से आप को शांत किया तब आपने सावधान होकर जैसे तैसे वही स्नान किया और ठीक सूर्योदय होने पर ही श्री अच्युत मुनि जी के पास पहुंचकर वेदांत का पाठ आरंभ किया ।
आप इसी प्रकार नित्य सायं काल में श्री परांजपे जी के यहां जाते और कीर्तन में सम्मिलित होकर खूब कीर्तन करते थे । इससे उस कीर्तनकार रंग कुछ और ही हो गया और यह कीर्तन रूपी नदी ऐसी उमड़ी के सारे आश्रम को डुबोती हुई आस पड़ोसी को भी प्लावित करने लगी । धीरे-धीरे यह बात अच्युत मुनि जी के कानों तक भी पहुंच गई । इससे वह उसी प्रकार बिगड़ उठे जैसे श्री गौर सुंदर के गया धाम से लौटने पर उनमें हुए अद्भुत परिवर्तन की बात सुनकर उनके विद्या गुरु श्री गंगा दास पंडित बिगड़ उठे थे । आपने पाठ प्रारंभ करने से पहले ही पूछा स्वामी जी क्या तुम उस मठ में जाकर नाच कूद कर कीर्तन किया करते हो । यह सुनकर श्री महाराज जी चुप रहे तब उन्होंने डांटकर कहा देखो स्वामी जी हमारे वेदांत पढ़ाने का क्या यही फल है इधर तो अद्वैत सिद्धांत श्रवण करते हो और उधर द्वैत भाव से उपासना करते हो क्या तुमको विचार सागर का मंगलाचरण स्मरण नहीं है ।

“जा कृपालु सर्वज्ञ को हिय धारतमुनि ध्यान । ताको होत उपाधि ते मो में मिथ्या भान ।।”

तब भी श्री महाराज जी चुप ही रहे इस पर उन्होंने और भी आवेश में आकर अनेक प्रकार से वेदांत सिद्धांत का प्रतिपादन करते हुए भेदोपासना का खंडन किया । इस पर भी आपने कोई उत्तर नहीं दिया तो उन्होंने बिगड़ कर कहा अच्छा तुम्हारा क्या मत है ठीक ठीक बोलो । तब श्री महाराज जी ने बड़ी शांति नम्रता से उन्हें प्रणाम करके कहा महाराज जी मेरे विचार में तो निर्गुण और सगुण में कोई भेद नहीं है एक ही तत्व की दो नामों से अथवा अनेकों नाम और रूपों से उपासना की जाती है । जैसा कि हनुमन्नाटक में कहा है-
” यं शैवा: समुपासते शिव इति ब्रह्मेति वेदान्तिनो
बौद्धा बुद्ध इति प्रमाणपटव: कार्तेति नैयायिका: ।
अर्हन्नित्यथ जैनशासनरता: कर्मेति मीमांसक: के
सोSयं वो विदधातु वांछितफलं त्रैलोक्यनाथो हरि:|””
(शैव जिनकी शिव रुप से वेदांती ब्रह्मरूप से बौद्ध बुद्ध रूप से और प्रमाण कुशल नैयायिक कर्ता रूप से उपासना करते हैं जैन शास्त्रों का अनुसरण करने वाले जिन्हें अर्हत
और मीमांसक जिन्हें कर्म मानते हैं । वह त्रिलोकाधिपति श्री हरि तुम्हारा अभीष्ट फल प्रदान करें ।) कहते हैं एक बार श्री रघुनाथ जी ने हनुमान जी से पूछा था कि मेरे प्रति तुम्हारी क्या भावना है तो उन्होंने यही कहा था–
“देहमत्या तु दासोहम जीवमत्या त्वदंशक: ।
ब्रह्ममत्या त्वमेवाहमिति में निश्चिता मति:||_”
मेरे विचार से तो जितने भी प्राचीन आचार्य हुए हैं उनकी स्थिति पर विचार करने से भी भक्ति और ज्ञान में कोई विरोध नहीं जान पड़ता । जो काक भुसंड जी योग वशिष्ट में ज्ञान के आचार्य हैं वही श्री रामचरितमानस में भक्ति के आचार्य माने गए हैं
सनकादि को देखिए छांदोग्य उपनिषद में नारद जी को तत्व ज्ञान का उपदेश देते हैं वही श्रीमद् भागवत का सप्ताह पारायण सुनाकर भक्ति का प्रचार भी करते हैं । वह ब्रह्मनिष्ठ भी हैं और वैष्णवआचार्य भी । शिव जी और नारद जी भी योग वेदांत एवं भक्ति तीनों के आचार्य माने गए हैं । श्री वेदव्यास जी ब्रम्ह सूत्रों के भी रचयिता है और श्रीमद्भागवत आदि भक्त ग्रंथों के भी प्रवर्तक हैं । शास्त्रों में भी जहां जिस विषय का वर्णन किया गया है वहां उसी को सर्वोपरि बताया गया है इस से तात्पर्य ही जान पड़ता है कि ज्ञान उपासना और कर्म सभी मार्ग अपनी अपनी जगह पूर्ण हैं । जिसकी जिसमें निष्ठा जम जाए उसका उसी के द्वारा कल्याण हो सकता है । और मेरे विचार से तो एक व्यक्ति साथ साथ भी तीनों साधन कर सकता है । और प्राचीन आचार्यों ने तो ऐसा किया भी है । यदि आजकल के अल्प सत्य मनुष्यों की सब में प्रगति न हो सके तो अधिकारी भेज से जिसकी जहां निष्ठा हो वहीं सच्चाई और ईमानदारी से लगे रहना चाहिए । तथा दूसरे मार्गों को बुरा या गलत नहीं कहना चाहिए । इससे उसके उत्साह तथा श्री हरि और गुरुदेव की कृपा से उसे सभी रहस्य स्वयं ही हृदयंगम हो जाएंगे । महाराज जी मेरे विचार से तो पहले ब्रम्ह निष्ठा परिपक्व होने पर ही यथावत रीत से सगुण ब्रह्म का चिंतन हो सकता है । इसीलिए शास्त्रों में पहले ही भित्तिभूमि ग्रुप शांत रस का ही वर्णन किया गया है । उसके पश्चात क्रमश: दास्य सख्य वात्सल्य और मधुर रस की पुष्टि होकर पूर्ण स्थिति प्राप्त होती है । अतः मेरे विचार से तो ज्ञान के बिना भक्ति और भक्ति के बिना ज्ञान अधूरे ही हैं । यह तो आजकल भी देखने में आता है की परस्पर ज्ञानी और भक्त कहलाने वाले लोग पर आपस में झगड़ने लगते हैं और एक दूसरे को नीचा दिखाने पर उतारु हो जाते हैं । हां अपनी निष्ठा की परिपक्वता के लिए और निष्ठा वाले लोगों से उदासीन रहा जाए तो इसमें कोई दोष नहीं है । परंतु उस में भी दूसरे पक्ष को बुरा कहने की तो गुंजाइश नहीं है । गोस्वामी श्री तुलसीदास जी ने भी कहा है ।
“_ एक अनीह अरूप अनामा। अज सच्चिदानंद पर धामा॥
ज्ञानहि भक्तिहि नहीं कछु भेदा |उभय हरहिं भव संभव खेदा||” निर्गुण ब्रह्म सगुण भए कैसे| जल हिम उपल विलग नहीं जैसे
||
और श्री भगवन नाम की विषय में तो गोस्वामी जी ने कहा है
ब्रह्म राम तें नामु बड़ बर दायक बर दानि।
रामचरित सत कोटि महँ लिय महेस जियँ जानि॥(२५)
भावार्थ:- इस प्रकार “राम” नाम निर्गुण ब्रह्म और सगुण ब्रह्म दोनों से बड़ा है जो कि वरदान देने वालों को भी वर प्रदान करने वाला है। श्रीशंकर जी ने सौ करोड़ राम चरित्र में से इस “राम” नाम को सार रूप में चुनकर अपने हृदय में धारण किया हुआ है।
तथा भगवान व्यास भी कहते हैं-
” हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम् |
कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा ||”
महाराज जी मेरी बुद्धि तो बहुत मोटी है आपकी इस वेदांत प्रक्रिया को ग्रहण करने में समर्थ नहीं है जान पड़ता है इसी से श्री हरि ने मुझे यह अवसर दे दिया है अभी तक तो मुझे यह पता ही नहीं था कि भक्ति किसे कहते हैं
मैं आपसे निष्कपट भाव से सत्य कहता हूं कि मुझे जो आनंद इस भक्त मंडली में मिला है वह में वर्णन नहीं कर सकता| और साथ ही इससे मेरी अहं ग्रहो उपासना की भी पुष्टि ही हुई है| इस प्रकार मेरी तुच्छ बुद्धि में जैसा भी आया वैसा मैंने निवेदन किया अब आप जैसी भी आज्ञा करें वैसा ही करुं | इस पर श्रीं अच्युत मुनि ने शांतिपूर्वक कहा भाई हम संकीर्तन के लिए मना थोड़े ही करते हैं हमने तो स्वयं प्रतिदिन एक लक्ष्य नाम जप किया है इसी से इस समय भी हमारी उंगलियां हर समय चलती ही रहती हैं और नाम जप भी स्वभाविक रुप से ही होता रहता है | परंतु हम इसे केवल चित्त शुद्धि का साधन मानते हैं | हमें तो भगवान के सगुण स्वरूप का दर्शन भी हुआ है परंतु वह तो हमारी दृढ भावना का ही परिणाम था वास्तव में तो सब नाम रूप कल्पित ही है | इसीलिए इस आदत को केवल एक और हो जाना चाहिए यह खिचड़ी मुझे पसंद नहीं है | अच्छा ठीक है मैंने समझ लिया तुम्हारे स्वरूप को तुम वेदांत के अधिकारी नहीं हो अब हम तुम्हें वेदांत नहीं पढ़ाएंगे | हमारी ओर से तुम्हें पूर्ण स्वतंत्रता है तुम्हारी जो इच्छा हो वही करो और जहां इच्छा हो वही जाओ |
तब श्री महाराज जी ने भी बड़ी गंभीरता से कहा जो आज्ञा और प्रणाम करके वहां से चल दिए चलकर सीधे श्री परांजपे जी के आश्रम में आए और कुछ दिन वही रहे अब तो भक्तों को दिन रात श्री महाराज जी के दर्शन सेवा और सत्संग का शुभ अवसर मिलने लगा | इसी समय में श्री परांजपे जी को इनकी चमत्कारपूर्ण अवस्थाओं को देखकर श्री गौरांग महाप्रभु का स्मरण हो गया |
परांजपे जी ने कुछ ही दिनों पूर्व अंग्रेजी में लिखित श्री शिशिर कुमार घोष कृत लार्ड गौरांग नाम की पुस्तक पढ़ी थी| उनको उस पुस्तक की याद आई और उस पुस्तक को पुस्तकालय से निकालकर श्री महाराज जी को देते हुए कहा यह अद्भुत ग्रंथ है इससे आपको बहुत सुख मिलेगा | श्री महाराज जी ने बड़े भाव से यह पुस्तक पढ़ी आपको उस पुस्तक में कितनी मिठास मिली कि दो-चार दिन में ही उसके दोनों भाग पर डाले तत्पश्चात श्री परांजपे जी के विशेष आग्रह से आप कथा के रूप में वही पुस्तक सत्संग के अंतर्गत सुनाने लगे | आप कथा कहने से पहले नित्यप्रति उस पुस्तक को विचार लेते थे और फिर मूल को बिना बोले धारावाहिक रूप से उसका हिंदी अनुवाद सुना देते थे | सुनने वालों को तो यही मालूम होता था मानो आप हिंदी की पुस्तक ही सुना रहे हों | श्री महाराज जी सिद्धासन से बैठ जाते थे और फिर ढाई घंटे तक आपके मुखारविंद से कथामृत की ऐसी बर्षा होती थी कि सभी श्रोतागण मुग्ध हो जाते थे | और सभी श्रोतागण भाव समाधि में मग्न होकर यह अनुभव करने लगते कि साक्षात गौर सुंदर ही अपने चरित्र का स्वयम वर्णन कर रहे हैं वर्णन करते समय कई बार आपकी दोनों भुजाएं ऊपर उठ जाती नेत्र मत वाले हो जाते और चेहरे से लालिमायुक्त प्रकाश निकलने लगता | उस समय जैसे भी भाव का प्रसंग होता था उसी के अनुसार आपकी मुखाकृति भी हो जाती थी | भक्तजन निर्निमेष दृष्टि से आपके मुख की ओर देखते हुए एकाग्रचित्त से विभिन्न भाव तरंगों में उछलते डूबते रहते | इस प्रकार कथा का वह समय एक क्षण की भांति निकल जाता फिर सभी आनंद में भरे अपने-अपने घरों को चले जाते परंतु वहां भी उस कथावाचक की मधुर मूर्ति एवं वाणी का स्मरण करते हुए उस प्रवचन की ही चर्चा करते रहते | उस सत्संग चर्चा में भक्त जनों को इतना रस मिला कि वह अपना सारा कामकाज भूल गए कभी-कभी सभी भक्त आपस में विचार करने लगते कि भाई यह स्वामी जी क्या वस्तु हैं अथवा कोई उच्च कोट के जन्म सिद्ध योगी हैं या साक्षात श्री महावीर जी ही हैं

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