श्री हरि संत परिकर

स्वामी रामतीर्थ जी

" श्रीहरि "

स्वामी रामतीर्थ का जन्म सन् १८७३ की दीपावली के दिन पंजाब के गुजरावालां जिले मुरारीवाला ग्राम में पण्डित हीरानन्द गोस्वामी के एक धर्मनिष्ठ ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनके बचपन का नाम तीर्थराम था। विद्यार्थी जीवन में इन्होंने अनेक कष्टों का सामना किया। भूख और आर्थिक बदहाली के बीच भी उन्होंने अपनी माध्यमिक और फिर उच्च शिक्षा पूरी की। पिता ने बाल्यावस्था में ही उनका विवाह भी कर दिया था। वे उच्च शिक्षा के लिए लाहौर चले गए। सन् १८९१ में पंजाब विश्वविद्यालय की बी० ए० परीक्षा में प्रान्त भर में सर्वप्रथम आये। इसके लिए इन्हें ९० रुपये मासिक की छात्रवृत्ति भी मिली। अपने अत्यंत प्रिय विषय गणित में सर्वोच्च अंकों से एम० ए० उत्तीर्ण कर वे उसी कालेज में गणित के प्रोफेसर नियुक्त हो गए। वे अपने वेतन का एक बड़ा हिस्सा निर्धन छात्रों के अध्ययन के लिये दे देते थे। इनका रहन-सहन बहुत ही साधारण था। लाहौर में ही उन्हें स्वामी विवेकानन्द के प्रवचन सुनने तथा सान्निध्य प्राप्त करने का अवसर मिला। उस समय वे पंजाब की सनातन धर्म सभा से जुड़े हुए थे।

आध्यात्मिक साधना

तुलसी, सूर, नानक, आदि भारतीय सन्त; शम्स तबरेज, मौलाना रूसी आदि सूफी सन्त; गीता, उपनिषद्, षड्दर्शन, योगवासिष्ठ आदि के साथ ही पाश्चात्य विचारवादी और यथार्थवादी दर्शनशास्त्र, तथा इमर्सन, वाल्ट ह्विटमैन, थोरो, हक्सले, डार्विन आदि मनीषियों का साहित्य इन्होंने हृदयंगम किया था।

इन्होंने अद्वैत वेदांत का अध्ययन और मनन प्रारम्भ किया और अद्वैतनिष्ठा बलवती होते ही उर्दू में एक मासिक-पत्र “अलिफ” निकाला। इसी बीच उन पर दो महात्माओं का विशेष प्रभाव पड़ा – द्वारकापीठ के तत्कालीन शंकराचार्य और स्वामी विवेकानन्द।

स्वामी रामतीर्थ शंकराचार्य के अद्वैतवाद के समर्थक थे, पर उसकी सिद्धि के लिये उन्होंने स्वानुभव को ही महत्वपूर्ण माना है। वे कहते हैं – हमें धर्म और दर्शनशास्त्र भौतिकविज्ञान की भाँति पढ़ना चाहिये। पाश्चात्य दर्शन केवल जाग्रतावस्था पर आधारित हैं, उनके द्वारा सत्य का दर्शन नहीं होता। यथार्थ तत्व वह है जो जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति के आधार में सत् चित् और आनन्द रूप से विद्यमान है। वहीं वास्तविक आत्मा है।

उनकी दृष्टि में सारा संसार केवल एक आत्मा का खेल है। जिस शक्ति से हम बोलते हैं, उसी शक्ति से उदर में अन्न पचता है। उनमें कोई अन्तर नहीं। जो शक्ति एक शरीर में है, वही सब शरीरों में है। जो जंगम में है, वही स्थावर में है। सबका आधार है हमारी आत्मा।

वे विकासवाद के समर्थक थे। मनुष्य भिन्न-भिन्न श्रेणियों है। कोई अपने परिवार के, कोई जाति के, कोई समाज के और कोई धर्म के घेरे से घिरा हुआ है। उसे घेरे के भीतर की वस्तु अनुकूल और घेरे से बाहर की प्रतिकूल लगती है। यही संकीर्णता अनर्थों की जड़ है। प्रकृति में कोई वस्तु स्थिर नहीं। अपनी सहानुभति के घेरे भी फैलना चाहिये। सच्चा मनुष्य वह है, जो देशमय होने के साथ-साथ विश्वमय हो जाता है।

वे आनन्द को ही जीवन का लक्ष्य मानते हैं पर जन्म से मरण पर्यंन्त हम अपने आनन्द-केन्द्रों को बदलते रहते हैं। कभी किसी पदार्थ में सुख मानते हैं और कभी किसी व्यक्ति में। आनन्द का स्रोत हमारी आत्मा है। हम उसके लिए प्राणों का भी उत्सर्ग देते हैं।

जब से भारतवासियों ने अपने आत्मस्वरूप को भुलाकर हृदय से अपने आपको दास मानना प्रारम्भ किया हम पतनोन्मुख हुए। प्रवृत्ति अटल और शाश्वत है। स्मृति गौण है, उसे देशकालानुसार बदलना चाहिये। श्रम-विभाजन के आधार पर वर्ण-व्यवस्था किसी समय समाज के लिए हितकर थी, पर आज हमने उसके नियमों को अटल बना कर समाज के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। आज देश के सामने एक ही धर्म है-राष्ट्रधर्म। अब शारीरिक सेवा और श्रम केवल शूद्रों का कर्तव्य नहीं माना जा सकता। सभी को अपनी सारी शक्तियों को देशोत्थान के कार्यों में लगाना चाहिये।

भारत के साथ तादात्म्य होने वाली भविष्यवाणी उन्होंने की थी-“चाहे एक शरीर द्वारा, चाहे अनेक शरीरों द्वारा काम करते हुए राम प्रतिज्ञा करता है कि बीसवीं शताब्दी के अर्धभाग के पूर्व ही भारत स्वतन्त्र होकर उज्ज्वल गौरव को प्राप्त करेगा। उन्हों ने अपने एक पत्र में लाला हरदयाल को लिखा था -” हिन्दी में प्रचार कार्य प्रारम्भ करो। वही स्वतन्त्र भारत की राष्ट्रभाषा होगी।” केवल तीन शब्दों में उनका सन्देश निहित है – त्याग और प्रेम

 

 

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