मैं हूँ और मेरा भगवान है!
मन में तीन बातें होती हैं – द्वेष, लोभ और मोह। जो इनको कम नहीं करता, उनका मन दुर्बल एवं चञ्चल हो जाता है । उसका मन निपुण भी नहीं होता । लोभी, मोही, द्वेषी लोग बेईमान, पक्षपाती और निष्ठुर होते हैं। ऐसा मन निर्बल होता है । उसमें स्वयं को रोकने की शक्ति नहीं होती । वह एक स्थान पर टिक नहीं सकता उसमें सूक्ष्म विचारों का उदय नहीं हो सकता। चित्त में लोभ, मोह, द्वेष की प्रधानता हो तो वर्तमान जीवनमें भी मनुष्य पशुतुल्य ही है । जो लोभ, मोह, द्वेष को रोकता है ,उसका मन सबल बनता है। वह स्थिर तथा परमार्थ विचार में पटु हो जाता है।
जिसके मन में लोभ, मोह अधिक है, वह ईश्वर का भक्त नहीं है । आप वस्तुतः ईश्वर के भक्त बनना चाहते हो तो द्वेष ,मोह लोभ छोड़कर मन को ईश्वर के चिंतन में लगाइए।
ऐसी कोई क्रिया नहीं होती जिसमें भगवान की दया ,करुणा ,वात्सल्य ना हो । मनुष्य की बुद्धि दूसरी और लगी रहती है , अतः उस क्रिया में उसे भगवान की कृपा समझ में नहीं आती ।
कभी-कभी किसी से वियोग होने में लाभ होता है । कभी पैसा खोने में भी लाभ होता है । कभी-कभी किसी के मरने में भी लाभ होता है ।सन्यासी होना त्यागमय जीवन -अकेला जीवन बिताना भी भगवान की कृपा है । एक बार मैं घर से भागकर चित्रकूट जा रहा था । मार्ग में एक परिचित मिले । बोले -‘अकेले जा रहे हो या कोई साथ है?’
मैंने कहा – ‘मैं हूँ और मेरा भगवान है।’
जब दूसरे साथ होते हैं तब भगवान का पता नहीं लगता । हम अकेले होते हैं तब भगवान का पता चलता है कि वह हमारी कैसे सहायता करता है? जिसने आपको मुख दिया ,शरीर दिया ,पेट दिया उसी ने रोटी दी है । आपकी एक-एक चेष्ठा भगवान की दृष्टि में है । जीवन में जो भी घटना घटे , उसमें भगवान का हाथ ,भगवान की करुणा देखो।
भगवान की कृपा को भली प्रकार देखते हुए, अपने शुभाशुभ कर्मफल भोगते हुए ; हृदय, वाणी और शरीर से जो भगवान के सम्मुख नत रहता है , मुक्ति पद का, प्रभु के प्रेम का वह सच्चा अधिकारी है।
जीवन की किसी घटना का कर्ता कोई मनुष्य नहीं , ईश्वर है । अतः जब तुम किसी काम करने वाले को गाली देते हो तो वह सीधे ईश्वर को जाती है।एक बार किसी बड़े पंडित ने कोई बात कही। बात मुझे जँची नहीं ।मैंने कह दिया- ‘ किस मुख ने ऐसा कहा है?’उन पंडित ने मेरे गुरु जी का नाम लेकर कहा – ‘उन्होंने कहा है ।’ मैं – ‘तब तो ठीक कहा है ।’ पंडित जी-‘पहले गाली दे दी अब कहते हो ठीक कहा है।’
इसी प्रकार हम कार्यों को दूसरों का किया मानकर गाली देते हैं । जैसे खीर खिलाने वाला चटनी, नमक-मिर्च भी परोसता है कि इन्हें बीच-बीच में खाने से खीर का स्वाद बढ़ जाता है , वैसे ही भगवान बीच-बीच में अपमान, दुःख, अभाव, रोग हमारा अभिमान तोड़ने के लिए भेजते हैं।
ग्रंथ : कपिलोपदेश
पृ : 134,136
स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती के
अनमोल विचार : “आनन्द रस रत्नाकर” नामक ग्रंथ से 07 जुलाई का लेख
(संकलन : स्वामी गोविन्दानन्द सरस्वती)
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