16- श्री चरणों में (परम आदरणीय गुरुजी लालता प्रसाद कृत)
यहां तक जो भी लिखा गया है वह सब सुना हुआ है अब आगे प्रायः देखी हुई बातें ही लिखी जाएंगे श्री चरणों में आकर इन आंखों ने जो कुछ देखा है वह सब व्यक्त करने की शक्ति तो इस लेखनी में है ही कहा फिर भी जैसा कुछ संभव होगा अपनी टूटी फूटी भाषा में व्यक्त करने का प्रयत्न करुंगाl
किन्ही सुयोग्य संत सदगुरु देव के चरणों की शरण पाने की लालसा मुझे बचपन से ही थीl
माता पिता ने बाल्यावस्था से ही मुझे प्रातः काल उठकर भजन करने की आदत डाली थी सवेरे 4:00 बजे से पीछे हमारे घर में कोई नहीं सो सकता थाl
तीन चार वर्ष की अवस्था से ही पिताजी ने मुझे अनेकों स्तुति परक श्लोक और हनुमान चालीसा कंठस्थ करा दिए थे। रात्रि के समय पिताजी घर में सभी भाई बहनों को इकट्ठा करके रामायण भागवत या श्री चरण दास जी की वाणी सुनाया करते थेl
उनमें सद्गुरु की महिमा बहुत वर्णन की गई है मेरे चित्त पर उनका बड़ा प्रभाव पड़ता था और मैं पिताजी से पूछा करता था कि ऐसे संत सदगुरु मुझे कहां मिलेंगे?
पिताजी मुझे कुछ बाल उचित उत्तर देकर समझा दिया करते थे जब मेरी आयु का छठा वर्ष आरंभ हुआ तो मुझे गांव के एक मदरसे में पढ़ने के लिए भर्ती करा दिया गयाl
2 साल में मुझे साधारण अक्षर ज्ञान हो गया और मैं रामायण तथा चरण दास जी की वाणी स्वयं पढ़ने लगाl पिताजी ने गोपाल सहस्त्रनाम भी कंठस्त करा दिया घर में ठाकुर सेवा थी ही मैंने भी पूजा करने का आग्रह किया तो एक पीतल के सिंहासन पर शालग्राम जी और एक बालमुकुंद जी की मूर्ति रख कर मुझे दे दीl
अब मैं नित्यप्रति बाल उचित पूजा करके पढ़ने के लिए जाया करता था श्री चरण दास जी के भक्ति सागर में मैंने पढ़ा-
‘ढूसर के बालक हुते भक्ति बिना कंगाल।
श्री गुरुदेव दया करि हरिधन किए निहाल।।
जा धन को ठग ना लगे धाड़ी सके न लूट।
चोर चुराय सके नहिं गांठ गिरै नहिं खूट।।’
यह पढ़कर मुझे बड़ी चटपटी लगी कि ऐसे सद्गुरु यदि मुझे मिल जाए तो मैं सदा के लिए उनकी शरण ले लूंl
हमारे गांव में अच्छे महात्मा प्रायः कम ही आते थे मैं जो भी साधु आते उनमें अपनी पोथी में पढे हुए सद्गुरु के लक्षण खोजता था बुद्धि बहुत चंचल थी उनसे प्रश्न भी करता था किंतु जब उनसे संतोष न होता तो बड़ी निराशा होती थी कई बार तो दुख से रोने भी लगता थाl
साढे 11 वर्ष की आयु में मैंने दर्जा चार पास कर लिया इसी समय मेरा यज्ञोपवीत संस्कार हुआ दीक्षा गुरु थे जिला गढ़वाल के पंडित श्री कृष्णदत्त जी ये ज्योतिषी व्याकरण कर्मकांड और आयुर्वेद के अनुभवी विद्वान थे स्वभाव के भी बड़े सरल सत्यवादी और धर्म भीरू स्मार्त वैष्णव थेl
इस और वे केवल आजीविका के लिए ही आते थे उनका संतोषी स्वभाव होने से सब लोग उनसे प्रेम करते थे और उन्हें अच्छी आय हो जाती थी जब वह शिवपुरी में आते तो हमारे घर ही ठहरते थे मेरे पिता जी से उनकी मित्रता थी हमारी आजीविका भी खेती और पंडिताई से ही चलती थी इसके अतिरिक्त पिताजी कुछ लेनदेन और वैद्यक भी कर लेते थे इस प्रकार भोजन वस्त्र की कोई कमी नहीं थीl
संभवत: संवत 1968 में हमारे गांव में प्लेग महामारी का बड़ा प्रकोप हुआ परिस्थिति बड़ी भयानक थी मैं भी उस के चुंगल में आ गया दोनों जांघौं में ग्रंथियां उभर आई और 106 डिग्री तक ज्वर हो गया।
जीवन की कोई आशा न रही पिताजी स्वयं वैद्य थे उन्होंने बहुत औषध उपचार किया किंतु फिर रोग को असाध्य समझकर निराश हो गए इससे पहले मेरा एक बड़ा भाई प्लेग का शिकार हो चुका था इसलिए वह बहुत ही शोकाकुल हो गए अच्छे तगड़े कसरती जवान थे धैर्य भी उनमें कम नहीं था परंतु इस समय मोह और पुत्र शोक ने बुरी तरह दवा लियाl
इस कारण उनकी हालत अकस्मात ही बिगड़ गई उन्हें तीन बार रुधिर का बमन हुआ वह समझ गए कि अब मैं नहीं बचूंगा उनके एक हितैषी कुटुंबी बड़े भाई थे उनसे उन्होंने सब हाल कहा और प्रातः काल 4:00 बजे पृथ्वी लिखवाकर स्वयं ही चारपाई से उतरकर लेट गए तथा श्री राम श्री राम उच्चारण करते चल बसेl
कुटुंबियों ने मेरे छोटे भाई रामशंकर से उनके दाह कर्म और श्राद्ध आदि कराए। मेरा हृदय तो उस समय इतना कठोर था कि पिताजी की मृत्यु होने पर मेरी आंखों से एक आंसू भी नहीं निकला बल्कि उल्टी हंसी आई मेरा विचार बचपन से ही साधु होने का था अतः उसी समय सोचा कि मैं विवाह नहीं करुंगा मां की सेवा छोटा भाई कर लेगा परंतु एक महीना बाद ही दो बड़ी बहन माता और कुटुंबियों ने मिलकर बलपूर्वक मेरा विवाह कर दियाl
उस समय अल्प आयु का होने के कारण बड़ों पर मेरा विशेष दवाब न बन सका इससे मेरे साधू होने की इच्छा पर तो बड़ा आघात पहुंचा किंतु सद्गुरु की खोज तो और भी प्रबल हो उठी कभी कभी तो मुझे ऐसा पागलपन से सवार होता था कि मैं बहुत रोता थाl
उस समय मेरे दीक्षा गुरु पंडित श्री कृष्ण दत्त जी मुझे समझाया करते थे मुझे उन्होंने बड़े प्रेम से संध्या ,पाठ, पूजा, गायत्री जप और उपासना पद्धति की शिक्षा दी में नित्य प्रति संध्योपासन गायत्री जप तथा रुद्री एवं अंन्य कई पाठ किया करता था इन से मुझे बड़ा संतोष मिलता थाl
अब गृहस्थी का सारा भार मुझ पर आ पड़ा था जो कुछ थोड़ी सी पहली पूंजी थी वह तो विवाह आदि में समाप्त हो गई थी मैंने घर का काम संभाल तो लिया परंतु हृदय में ग्लानि ही थी पंडित श्री कृष्ण दत्त जी तो समय समय पर अपने देश को चले जाते थे उस समय मेरा सत्संग पंडित रामप्रसाद जी के साथ रहता थाl
पंडित रामप्रसाद जी दूसरे मोहल्ले के बड़े सज्जन और भजन आनंदी ब्राह्मण थे इनके नेत्रों की ज्योति जाती रही थी इन्हे रामायण और भागवत तो प्रायः कंठस्थ ही थी इनसे दिन में एक बार में प्राय: मिललिया करता था यह शिव मंदिर में जा कर सवेरे 10:00 बजे तक भजन करते थे और फिर भोजन के उपरांत कोई सद ग्रंथ सुना करते थे मैंने इन्हें श्री चरण दास जी का भक्ति सागर सुनाया उसमें सद्गुरु की महिमा पढ़कर मेरा चित्त व्याकुल हो गया और मैं पंडित श्री रामप्रसाद जी के चरण पकड़ कर खूब रोयाl
तब उन्होंने मुझे धैर्य बताया और कहा हम तुमको एक उपाय बतलाते हैं यह हमारा अनेक बार का अनुभूत है तुम श्रीरामचरितमानस का एक पाठ श्री शिव जी को सुनाओ शिव जी बड़े दयालु है औढर दानी हैं तथा भक्ति के भंडारी हैं उनकी कृपा से सभी अभीष्ट फल प्राप्त हो सकते हैं श्री गुसाईजी तो कहते हैं-
‘इच्छित फल बिनु शिव आराधे ।
लहे न कोटि जोग जप साधे ।।’
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