Shri Hari जीवन परिचय श्री हरि संकलनकर्ता

फिर गवां में page.14

" श्रीहरि "

फिर गवां में*
वर्धा से चलकर आप अमरकंटक पहुंचे यह श्री नर्मदा जी का उद्गम स्थान है| बड़ा अपूर्व दृश्य था आसपास अनेकों पर्वत शिखर ऊंचाई में मानो परस्पर स्पर्धा कर रहे थे इस स्थान को देखकर आप का चित्त बड़ा प्रसन्न हुआ आपको वर्धा में भगवद रस का आस्वादन हो ही चुका था | फिर भी उसमें उन्मत्त होकर अपने लौकिक और पारलौकिक कर्तव्यों की कभी अवहेलना नहीं की | अब भी आपमें दीन दुखियों के प्रति अत्यंत करना और सहानुभूति का भाव था कहते हैं वहां एक कोढ़ी रहता था एक दिन आप घूमते हुए उसकी ओर जाने के लिए तो देखा कि उसे अत्यंत कष्ट है आप ने उससे पूछा तुम क्या चाहते हो उसने रोककर कहा बाबा मेरे पास कोई नहीं आता मैं इधर रोग से पीड़ित हूं और उधर भूख से मर रहा हूं आपने यह सुन कर उसे आश्वासन दिया कि तुम घबराओ मत मैं तुम्हारी सेवा करूंगा इससे वह बेचारा बड़ा प्रसन्न हुआ | बस हमारे चरित नायक बड़े प्रेम से उसकी यथायोग्य सेवा करने लगे नीम के पानी से उसके घाव धोते थे उसके घावौं से कीड़े निकालते थे कहीं से कोई औषधि लाकर उसकी मरहम पट्टी करते थे अपने हाथ से उसे स्नान कराते थे साबुन से उसके कपड़े धोते थे और गांव से भिक्षा लाकर उस को खिलाते पिलाते थे | इससे उसे बड़ा सुख मिलता था वह बेचारा कृतज्ञता पूर्ण दृष्टि से आपकी ओर देखता और मन ही मन आशीर्वाद देता था | इस प्रकार उसका कष्ट बहुत ही कम और प्राय: समाप्त ही हो गया | आप कहां करते हैं कि मुझे जैसी शांति उसकी सेवा करने में मिली वैसीकभी नहीं मिली |
अमरकंटक से चलकर आप और भी कई स्थानों में गए और फिर घूमते फिरते एक दिन अकस्मात गवां में जा पहुंचे | यह घटना संभवत संवत 1970 की होगी आप सीधे बाबू हीरालाल के बगीचे में पहुंचे और उनकी कुटी के किवाड़ खटखटाने लगे | प्रातः काल 8:00 बजे का समय था बाबूजी सवेरे 3:00 बजे से ही हठयोग की क्रियाओं के द्वारा निरंतर प्राण निरोध का प्रयत्न कर रहे थे उनका कुंभक होना ही चाहता था कि उनके कानों मेंकिवाड़ खोलो का ऐसा गंभीर स्वर पड़ा कि शब्द सुनकर वह मानों नींद से चौंक पड़े | बाबू हीरालाल जी दबे हुए स्वर में बोले कौन इस पर बाहर से उसी गंभीर स्वर में उत्तर आया जिसका तुम ध्यान करते हो | फिर आश्चर्यचकित होकर प्रश्न किया कौन परंतु फिर से वही उत्तर मिला जिसका तुम ध्यान करते हो-
इस बार उन्होंने आश्चर्यचकित होकर पूछा कृपया आप बतलाइए आप कौन हैं परंतु फिर भी वही उत्तर मिला तब उन्होंने हड़बड़ाकर किवाड़ खोल दिए | देखा कि सामने वही उनके पूर्व परिचित युवक सन्यासी है किंतु इस समय उनकी कांति विलक्षण है एकदम तपाए गए स्वर्ण की भांति गौर वर्ण हैं श्री मुख से दिव्य तेज प्रस्फुटित हो रहा है नेत्र प्रफुल्लित नील कमल के समान तथा मदोन्मत की भांति घूर्णित हैं तथा अंग-प्रत्यंग से शोभा और लावण्य फूट-फूट कर निकल रहे हैं मान प्रत्येक अंग से अमृत की वर्षा हो रही हो | देखते ही बाबू जी ने श्री चरणों में साष्टांग दंडवत प्रणाम किया उन्हें इतना आनंद हुआ मानो किसी महान दरिद्री को कुबेर का भंडार मिल गया हो अथवा गूंगे को वाणी और अपाहिज को पर्वत लंघन का सामर्थ्य अथवा किसी चिरकाल से बिछड़े हुए प्रेमी को अपना प्रेमास्पद मिल गया हो | बाबू हीरालाल जी हर्षातिरेक आनंद से प्रायः मूर्छित हो गए आपने बलपूर्वक उन्हें अपने हृदय से लगा लिया आप केसरी अंग का स्पर्श पाकर बाबूजी को एक विलक्षण सुख का अनुभव हुआ और वह एक टक नेत्रों से आपकी ओर देखने लगे| मानो जन्म भर के लिए आज ही हृदय में बैठा लेंगे| श्री महाराज जी के प्रति बाबूजी का ऐसा अन्य संकोची भाव शायद फिर कभी भी नहीं देखा गया इसके बाद तो हमने इन्हें कभी नेत्र भरकर श्री महाराज जी की ओर देखते भी नहीं देखा और न कभी मुंह खोलकर बोलते हुए ही देखा मानव श्री भरत लाल की यह उक्ति चरितार्थ हुई |
– मैंहु सनेह संकोच बस सन्मुख कहेउ न बैन |
दरसन तृप्ति ना आजु लगि प्रेम पियासे नैन | |
आज मानो यह भक्त और भगवान का अपूर्व मिलन हो गया | या यूं कहिए कि योगी अपनापा छोड़कर अपने आप में विलीन हो गया | जीव जीवता से मुक्त होकर ब्रह्म से अभिन्न हो गया सत्शिष्य अहंता ममता छोड़कर संत सद्गुरु के श्री चरणों में लीन हो गया | सदा के लिए उन्ही का स्वप्न हो गया सदगुरु ही रह गया परमानंद स्वरुप अपना आप ही रह गया अथवा एक अनिर्वचनीय अद्भुत अखंड सुख रह गया | परंतु हमारे चरित्र नायक को तो विश्व कल्याण के लिए बहुत लीला करनी थी इसलिए फिर सेव्य सेवक भाव का उदय हुआ | और सेवक ने मानसिक भावना से अपने सेव्य का षोडशोपचार पूजन किया तथा नेत्रों के अर्ध्य से श्री चरणों को धोया | तब अपने भक्तों को किंकर्तव्यविमूढ़ देखकर लीला पुरुषोत्तम बोले बाबू जी क्या करते हो उठो अपने आप को संभालो अपने स्वरूप का स्मरण करो अभी आपको बहुत कार्य करना है | इस स्वार्थ परायणता को छोड़ो केवल अपने आत्मा के ही सुख से चित्त निकालो देखो मोक्ष की लालसा को भी तिलांजलि देकर चिरकाल से बिछड़े हुए अपने ही स्वरुप भूत अनंत जीवों को जो त्रिविध तापों से जल रहे हैं भवसागर से निकालकर श्रीहरि चरणों में लगाना ही सबसे बड़ा पुरुषार्थ है | संसार में सबसे बड़ी सिद्धि सबसे बड़ा योग सबसे बड़ा ज्ञान सबसे बड़ा ध्यान सबसे बड़ा उपकार और सबसे बड़ी सेवा यही है कि एक भी भगवत विमुख जीव को श्री हरि के सन्मुख कर दिया जाए | हम संसार में केवल अपने सुख के लिए ही नहीं आए हैं | हमें तो संसार के सभी जीवों को श्री भगवान के सन्मुख करना है | चाहे हमारा सर्वस्व नष्ट हो जाए परंतु उससे किसी एक जीव को भी परमात्मा सुख प्राप्त हो जाए तो हमारे जीवन का उद्देश्य सिद्ध हो जाता है | वास्तव में सच्ची भक्ति यही है इसमें पूर्ण स्वार्थ त्याग अपेक्षित है |
भक्तिमुक्तिस्पृहा यावत्पिशाची हृदि वर्तते |
तावद्भक्ति सुखास्यात्र
कथमभ्युदयो भवेत| |
अर्थात जब तक हृदय में भोग या मोक्ष इच्छा रूपी पिशाची मौजूद है तब तक उस में भक्ति सुख का आविर्भाव कैसे हो सकता है?
आप बाबूजी से बोले लो यह भगवन नाम की पूंजी जो मैं वर्धा से प्रसाद रूप में लाया हूं इसका स्वयं रसास्वादन करके प्राणिमात्र को वितरण करो देखो इसमें पात्र अपात्र का विचार मत करना जो सबसे अधिक नीच और पामर है वही इसका अधिक अधिकारी है| भक्त अभक्त साधु असाधु पंडित मूर्ख ब्राह्मण चांडाल स्त्री बालक सभी इसके अधिकारी हैं | यहां तक कि पशु पक्षी शूकर कूकर वृक्ष लता आदि का भी इसमें समान अधिकार है |
हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम् ।
कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा ॥
बाबू जी मैं वर्धा से आपके लिए एक नए और विचित्र भगवान लाया हूं कल भावना अवतार सचिन नंदन गौर सुंदर श्रीनिवास यह लो उनकी चरित्र सुधा | ऐसा कहकर हमारे चरित नायक श्री श्री 108 श्री हरि बाबा जी महाराज ने लॉर्ड गौरांग नाम की पुस्तक बाबूजी के हाथ में दी और बोलिए इसे एक बार पर जाओ फिर मैं स्वयं आपको सुनाऊंगा अब उठो इस योग को छोड़ो बस आज से इसका नाम न लेना जो चाहोगे स्वयं ही होगा | चिंता न करना तुम्हारे बदले में भजन करूंगा |
बस उसी दिन से बाबूजी ने हठयोग छोड़ दिया अब तो श्री महाराज जी की कृपा से इनकी विचित्र अवस्था हो गई रात को केवल 2 घंटे निद्रा लेकर 1:00 या 2:00 बजे ही जंगल में चले जाते थे वहां एकांत में जाकर बैठते ही इनकी समाधि लग जाती थी | सवेरे 8:00 बजे तक यह समाधिस्त रहते थे | उत्थान होते ही यह सीधे अपने बगीचे में आ जाते और स्नान आदि से निवृत होकर कुछ देर स्तोत्र का पाठ करते | फिर अपने घर जाकर रसोई बनाते उस समय श्री महाराज जी या कोई और साधु आ जाते तो उन्हें प्रेम से भिक्षा कराते | कभी-कभी तो इसी संकल्प से विशेष भोजन तैयार करते कि श्री महाराज जी पधारें | भोजन बनाते समय भी बाबूजी बड़ा मस्त रहते किसी न किसी स्तोत्र का पाठ या भगवन नाम संकीर्तन करते रहते | कई बार भोजन बनाते समय मानसिक भावना से श्री महाराज जी का आवाहन करते | भोजन बनकर तैयार हुआ उसे तुलसीदल देकर अपने परम इष्ट श्री महाराज जी को अर्पण किया और एकदम भावावेश में आकर हंसने या रोने लगे | और एकदम श्री महाराज जी आ जाते बाबूजी श्री महाराज जी को ध्यान में भोग लगाने में मस्त बैठे हैं और श्री महाराज जी द्वार पर जोर से पुकार रहे हैं बाबूजी मुझे बड़ी भूख लगी है कुछ खाने को दो | बाबूजी हड़बड़ा कर उठते और विदुर पत्नी की तरह ऊटपटांग चेष्टाएं करने लगते | हालत यह कि यदि चरण ढूंढने में लग गए तो बहुत देर तक चरण ही धोते रहते श्री महाराज जी के बार-बार सावधान करने पर सावधान होकर भोजन परोसते | परंतु प्रेम की खुमारी अभी ज्यों की त्यों चढ़ी है बस अब भोजन ही परोसते जा रहे हैं इधर भक्तवत्सल भगवान भी अपनी मस्ती में भोजन करते जा रहे हैं न बाबूजी परोसने से रुकते हैं और न वह खाने से रुकते हैं | यहां तक कि कभी कभी तो दश बीस आदमियों का भोजन परोस देते मिठाई के थाल के थाल बहुत से फल मेवा तथा दाल भात रोटी सब न जाने कितना खिला देते और हमारे भक्तवत्सल खाते जाते | कई बार श्री महाराज जी से चर्चा करा करते थे कि भाई भोजन किया था बाबू जी के हाथ से जिस समय वह पागल की तरह सामने बैठकर भोजन कराते थे तो ऐसा मालूम होता था मानो एक-एक ग्रास के द्वारा साक्षात ब्रह्मानंद ही हृदय में भर रहा है | कितना भी भोजन कर लो पर पता ही नहीं लगता था कि हमने कुछ खाया है | वह भोजन कितनी देर पेट में रहता प्रतीत होता मानो कोई नशा पिया हो |
उन दिनों श्री महाराज जी उन्मत्त की भांति बड़ी मस्ती में रहा करते थे जो कोई मिलता उसी से पूछते भाई भक्तजन और सत्संगी लोग कहां मिलेंगे | तब किसी ने बताया कि बरोऱा में पंडित जयशंकर नित्यानंद और जोहरीलाल रहते हैं वह बड़े सत्संगी है | बस आप उसी समय तीर की तरह छूटे और तलाश करते हुए बरौरा में पंडित जयशंकर जी के यहां पहुंच गए | वहां जाकर पंडित जी को साष्टांग दंडवत प्रणाम किया वह बेचारे एक परम तेजस्वी सन्यासी को दंडवत करते देखकर एकदम हक्के बक्के रह गए दोनों भाइयों ने उठकर बड़े आदर और प्रेम से उनको साष्टांग प्रणाम किया और इन्होंने उठाकर उन्हें अपने हृदय से लगा लिया | इनके आलिंगन से उनके हृदय में बिजली सी दौड़ गई फिर सचेत होकर उनसे जैसा बना उनका सत्कार किया | कुछ बातचीत होने पर यह स्थिर हुआ कि कल से प्रातः काल आकर यहीं स्नान करके श्रीमद्भागवत पर विचार किया करेंगे |
इसके पश्चात श्री श्री 108 श्री हरि बाबा जी महाराज वहां से चले आए पंडित जयशंकर जी इन्ही दिनों काशी से व्याकरण पढ़कर आए थे अच्छे सुबोध पंडित थे नित्यानंद जी को तो साधारण हिंदी का ही ज्ञान था??इनके दो बड़े भाई और थे उम्र में बड़े बैजनाथ जी थे और छोटे श्रीराम जी थे ?? और उनके चाचा श्री हरिप्रसाद जी थे तथा सीताराम और मितवल नाम के दो चचेरे भाई भी थे| यह बेचारे गरीब ब्राह्मण गांव की पंडिताई से ही अपनी जीविका चलाते थे | सबसे छोटे नित्यानंद जी गाय चराया करते थे | श्रीराम पंडिताई करते थे आसपास के अहीर जाति के लोग इनके यजमान थे इस प्रकार सामान्य जीविका से ही इनका निर्वाह होता था | परंतु इनका जीवन था ऋषि जीवन घर में ठाकुर सेवा तथा प्रातः सायं संध्योपासन भी किया करते थे | देखने से ही यह सभी तेजवान ब्राह्मण जान पड़ते थे |
दूसरे दिन प्रातः काल 4:00 बजे ही श्री महाराज जी गांव से चलकर बरौरा जा पहुंचे इधर दोनों भाई प्रतीक्षा में खड़े ही थे
| देखते ही परस्पर एक दूसरे को साष्टांग दंडवत प्रणाम किया | फिर नित्यानंद ने कुंवे से जल खींचकर कमंडल भर दिया और एक दातोंन देदी श्री महाराज जी एक और एक ऊंचे से टीले पर बैठकर दातुन करने लगे उसके पश्चात जब तक आप बरोरा जाते रहे उसी स्थान पर बैठकर दातुन करते रहे यहां तक की वहां आपके दोनों चरण कमलों के दिन बन गए थे | उसके बाद लघुशंका से निवृत होकर स्नान किया स्नान करने का आपको बड़ा शौक था उन दिनों कम से कम बीस डोल से आप स्नान करते थे कभी-कभी तो चार आदमी भी जल खींचते खींचते थक जाते थे | परंतु श्री महाराज जी स्नान करते करते नहीं थकते स्नान भी एक निश्चित क्रम से होता था पहले तीन बार कमंडल भरकर सिर पर जल डालते फिर मुंह में खूब पानी भरकर खुली हुई आंखों में जल के छींटे मारते पीछे शरीर को खूब मलते और तौलिया से रगड़ते हुए जल डालते | आयुर्वेद का तो ऐसा मत है कि कम से कम 7 बार शरीर को तौलिए से रगड़कर कर पानी से धोना चाहिए जिससे कि रोमकूपों का मल निकलकर त्वचा साफ हो सके | इस प्रकार आप बड़े आनंद से खूब स्नान करते और फिर नीम के नीचे झाऊ के टटियों सेघिरे हुए एक लिपाई-पुताई से स्वच्छ स्थान में बैठकर एक घंटा ध्यान करते | इसके पश्चात कुछ स्तोत्र पाठ होता और फिर श्रीमद्भगवत पर विचार किया जाता | पंडित जयशंकर अपनी भागवत की पोथी लेकर बैठते स्वाध्याय अधिकतर श्रीधरी टीका अथवा किसी अन्य प्राचीन टीका के आधार पर किया जाता था | प्रायः 11:00 बजे आप बरोरा से गंवा आते और मधुकरी वृत्ति से भिक्षा करते | उसके पश्चात कभी महाशय सुखराम गिरी जी की दुकान पर बैठते और कभी बाबू हीरालाल के अड्डे पर चले जाते | वहां बालकों की तरह खूब हंसा करते अथवा कभी-कभी मस्ती में आकर कुछ अध्यात्मिक भावपूर्ण खेलकूद करा करते | महाशय सुखराम गिरी जी का उल्लेख पहले भी किया जा चुका है यह इस समय श्री महाराज जी के जो भक्त विद्यमान हैं उन सब में संभवत: सबसे पुराने हैं | महाशय सुखराम गिरिजी जाति से गुसाई हैं तथा हमारे बाबूजी हीरालाल जी के समवयस्क और सहपाठी हैं | परंतु इन पर आर्यसमाजी विचारों का बहुत गहरा प्रभाव था इनका दिमाग बड़ा विचित्र था शायद को पैसा देना यह पाप समझते थे | उनकी बुद्धि बड़ी तर्कशील थी गांव में कपड़े की सामान्य सी दुकानदारी और कुछ लेनदेन करते थे उसी से इनके निर्वाह योग्य आजीविका हो जाती थी | बाबू हीरालाल जी इन से बहुत प्रेम करते थे क्योंकि इन्हें खाने पीने का बहुत शौक था इसलिए जब कभी भी बाबूजी के यहां कोई विशेष पदार्थ बनता तो वह खाने पर महाशय जी को अवश्य बुलाते थे या फिर इनके पास भेज दिया करते थे | महाशय जी का स्वभाव बड़ा शांत और गंभीर था उस समय सगुण उपासना में इनकी श्रद्धा नहीं थी परंतु अन्य आर्यसमाजियों की तरह यह पर दोष दर्शन या कुतर्क नहीं किया करते थे पढ़े लिखे साधुओं से यह अवश्य प्रेम करते थे इसी नाते श्री महाराज जी से भी इनका प्रेम हो गया था | धीरे-धीरे महाशय जी की दुकान ही महाराज जी की बैठक होगई गांव से भिक्षा लाकर वह महाशय जी की दुकान पर बैठकर ही भोजन किया करते थे कभी-कभी महाशय जी स्वयम भी महाराज जी को कुछ खिलाया करते थे | हमारे बाबू श्री हीरालाल जी तो साधुओं के अनन्य भक्त थे वह भी मित्रता के नाते उनके साधु सेवा रुप कार्य में उनका हाथ बटाने लगे इससे उन्हें साधुओं के संघ का अवसर मिला उन साधुओं में से जिन में इन महाशय जी की श्रद्धा हुई सबसे पहले हमारे महाराज जी ही थे | फिर भी कई बार श्री महाराज जी की मस्ती का रंग देखकर महाशय जी का तर्कशील मस्तिष्क तरह-तरह की शंकाएं करने लगता था कभी-कभी तो यह ऐसी कल्पना कर लेते थे कि इनका दिमाग बिगड़ गया है उस समय बाबूजी ही इनकी शंका का समाधान किया करते थे | इस प्रकार धीरे-धीरे श्री महाराजजी में महाशय जी की श्रद्धा बढ़ने लगी अब तो यह उनके अनन्य भक्त हो चुके हैं और सगुण निर्गुण का विवाद भी इनके चित्त से निकल चुका है |

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