८-उपरति की ओर*
किंतु आश्रम की इस धूमधाम से हमारे चरित नायक का चित्त ऊब गया | आपको तो अब किसी का शब्द भी नहीं सुहाता था फिर आप का आविर्भाव भी तो एक आश्रम की संकुचित सीमा में रहने के लिए नहीं हुआ था | अतः आप का विशाल हृदय अब विश्व कल्याण की भावना से व्याकुल हो उठा | यह बात आपने हम लोगों से कई बार कही है कि उस समय मुझे यह अभिमान था कि मैं वह काम करूंगा जिसे श्री महाराज जी भी नहीं कर सके | किंतु कुछ भी नहीं हो सका इस प्रकार का दैन्य और असंतोष तो आपका स्वभाव ही है | और श्रीमनमहाप्रभु जी के शब्दों में यही एक सच्चे भक्त का स्वभाव होना भी चाहिए-
*तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना। अमानिना मानदेन कीर्तनीयः सदा हरिः ॥*
अतः अब आपका विचार वह स्थान छोड़ने का हो गया । या यूं कहिए कि उस कूपमंडूक वृत्ति को छोड़ कर एक अनंत महासागर में तैरने के लिए आप आतुर हो गए । क्योंकि अब तो आपको और भी अधिक भीड़ में रहना था आप जैसे उदारचेता गुरु कृपा से उपार्जन की हुई अध्यात्मिक संपत्ति को अपने ही पास कैसे रख सकते थे । अतः जिस प्रकार परमहंस रामकृष्ण देव से प्राप्त हुई संपत्ति को लेकर स्वामी विवेकानंद ने संसार में भारतीय संस्कृति की विजय वैजयंती फैला दी थी । अथवा गुरुदेव की मना करने पर भी जय श्री श्री मद् राम रामानुजाचार्य ने उनका बताया हुआ कल्याणकारी मंत्र एक ऊंचे टीले पर चढ़कर सभी को सुना दिया था उसी प्रकार मानव अधिकारी अनाधिकारी किसी का विचार न कर मुक्त हस्त से सभी को भगवन्नाम रत्न लुटाने के लिए आप एक दिन बिना किसी से कुछ कहे वहां से चल दिए ।
मनहु भागु मृग भागवश बागुर विषम तुराइ|
कुछ दिन आप मस्ती में इधर उधर घूमते रहे केवल एक बार भिक्षा मांग कर निर्वाह करते और हर समय मौन रहकर सहजावस्था में विचरते रहते |
उस समय संभवत:आप का भ्रमण पंजाब के पर्वतीय प्रांतों में हुआ | इस प्रकार घूमते घूमते आप आनंदपुर पहुंचे और सिखों के बड़े गुरुद्वारे में रहने लगे | वहां के महंत जी से प्रार्थना कर करके आपने आश्रम की कुछ सेवा स्वीकार की | आप वहां के लंगर का सबसे बड़ा बर्तन जिसमें प्रायः एक हजार व्यक्तियों के लिए दाल बन सकती थी मांजा करते थे | आपने सुनाया था कि वह इतना बड़ा बर्तन था कि उसके भीतर खड़े होकर उसको मांजना होता था | इसके सिवा आप वहां के बच्चों को भी सोचा करते थे वहां आप केवल एक समय लंगर का सामान्य भोजन करते थे महंत जी के कहने पर भी आपने दूसरे समय दूध या कोई चीज लेना स्वीकार नहीं किया | फिर आप एक गुरमुखी के ग्रंथ से दस गुरुओं के जीवन चरित्र को सुनाने लगे | आश्रम में प्रत्येक कार्यक्रम में आप सम्मिलित होते थे | उस समय शीतकाल था और पंजाब प्रांत का पहाड़ी प्रदेश तो भी आप रात को 3:00 बजे उठकर तालाब में स्नान करते और एक सामान्य सी चादर ओढ़कर सवेरा होने तक ध्यान में बैठे रहते |
इस प्रकार आप बहुत दिनों तक आनंदपुर में रहे फिर वहां से जनौड़ी चले आए यहां आपके गुरु भाई स्वामी श्री परमानंद गिरि जी रहते थे | बड़े महाराज जी मैं गुरु भाव रखने वाले ग्रहस्थ भक्त तो यहां बहुत थे | परंतु उनके विरक्त शिष्य यह दो ही थे स्वामी परमानंद जी व्याकरण और वेदांत के अच्छे पंडित थे आपके पास ग्रंथों का अभी अच्छा संग्रह था जनौड़ी में साधु से भी और सत्संगी लोग बहुत थे | स्वामी परमानंद जी महाराज की कुटी पर योग वशिष्ठ और आत्म पुराण की कथा नियम से हुआ करती थी | आपका आसन तो इसी कुटी पर था परंतु प्रातः काल नित्य कर्म से निवृत होने के लिए आप वहां से 2 मील दूर संत विश्वामित्र जी की कुटी पर चले जाते थे |
संत जी बड़े शौकीन साधु थे इन्हें खाने पहनने का बड़ा शौक था| इसलिए उनकी कुटी में सामान भी बहुत था बहुत से बहुमूल्य ऊनी रेशमी और सूती वस्त्र दो चार घड़ियां और बहुत से बर्तन भाड़े भी थे | एक दिन संत जी कार्यवश कहीं बाहर जाने लगे तब उन्होंने आपसे कहा स्वामी जी आप कुटिया की थोड़ी देखभाल रखना वैसे तो मैं एक आदमी को भी रखे जाता हूं फिर भी आप थोड़ा ध्यान रखें संत जी वहां एक आधा पागल पहाड़ी आदमी छोड़ गए आप वहां नित्यप्रति प्रातः काल और सायं काल में जाते थे तथा तीन चार घंटे रहते थे | एक दिन प्रातः काल जब आप पहुंचे तो कुटी में कुछ खटपट मालूम हुई दरवाजे के पास जाकर देखा तो उसमें रोशनी हो रही थी पर कुटी के पीछे से देखा तो मालूम हुआ कोई आदमी जंगल तोड़कर कुटी में घुसा है भीतर जाकर देखने पर वह कुटिया का रखवाला ही निकला उसने कुटी के सारे कपड़े बर्तन खाने के सामान और घड़ियों की एक गठरी बांध ली थी आपको देखते ही वह घबराया और भागने की चेष्टा करने लगा | तब आपने समझाया कि तू घबरा मत मैं तुझसे कुछ नहीं कहूंगा परंतु एक बात मान लें कि इनमें से वह सामान तो निकाल दे जो स्वामी जी के मतलब का है और उसके बदले दूसरा सामान ले ले जो तेरे काम का हो भले ही और सामान बांध ले तू ऐसी कोई चीज मत ले जा जो तुझे बेचनी पड़े | तब आपने स्वामी जी के बढ़िया-बढ़िया कपड़े घड़ियां और कुछ आवश्यक बर्तन तो निकलवा लिए तथा खाने का बहुत सा सामान नगद रुपए मवेे और मिठाई आदि प्राय: एक मन की गठरिया उठवाकर उसके सर पर रखवादी वह घबराया कि यह स्वामी जी से कह देंगे तो आपने उसे विश्वास दिलाया कि मैं किसी से नहीं कहूंगा परंतु भाई यह बात सोच लो यह मनुष्य शरीर बड़ी कठिनता से मिला है यह चोरी करने के लिए नहीं है अतः यदि उच्च समझे तो आज से चोरी करना छोड़ दो और भगवान का भजन किया करो | आपके उपदेश से प्रभावित होकर उसने वह सामान ना ले जाना चाहा | परंतु उसके बहुत मना करने पर भी आपने वह गठरी उठाकर उसके सर पर रख दी वह लेकर चला गया परंतु फिर वह सामान अपने बच्चों को दे कर सदा के लिए साधु हो गया उसका पश्चाताप करके बहुत रोया करता था और हर समय भजन में लगा रहता था कभी-कभी महाराज जी के पास आकर भी वह बहुत रोता था तब आप उसे समझा देते थे पीछे किसी प्रकार की इस घटना का पता संत विश्वामित्र जी को भी लग गया | उनके हृदय पर इस घटना का बहुत अच्छा प्रभाव पड़ा उन्होंने अपना सारा सामान दीन दुखियों को बांट दिया और स्वयं मधुकरी भिक्षा कर के भजन करने लगे | सचमुच संतो की लीला बड़ी अद्भुत होती है गोस्वामी श्री तुलसीदास जी महाराज कहते हैं –
संत हृदय नवनीत समाना |
कहा कवनि पर कहै न जाना ||
निज परताप द्रवै नवनीता | परम दु:ख द्रवै सुसंत पुनीता ||
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बंदों संत समान चित हित अनहित नहीं कोउ | अंजलि गत शुभ सुमन जिम सम सुगंध कर दोउ ||
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