श्री हरि संत परिकर

संत प्रभुदत्त ब्रह्मचारी जी

" श्रीहरि "

संत प्रभुदत्त ब्रह्मचारी का जन्म जनपद अलीगढ के ग्राम अहिवासीनगला में सम्वत् 1942 (सन १८८५ ई०) की कार्तिक कृष्ण अष्टमी (अहोई आठें) को परम भागवत पं॰ मेवाराम जी के पुत्र रूप में हुआ। विदुषी माता अयुध्यादेवी से संत सुलभ संस्कार प्राप्त कर आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत धारण किया। सम्वत् 2047 (सन 1990 ई०) की चैत्र कृष्ण प्रतिपदा को भौतिक देह का त्याग वृन्दावन में कर गोलोकधाम प्रविष्ट हो गए।

संत श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी जी का व्यक्तित्व विलक्षण और विराट था। उनका जन्म निर्धन परिवार में हुआ। छोटी अवस्था में ही वे गृह त्यागकर गुरुकुल में रहे, जहां शिक्षा-दीक्षा ग्रहण की। बचपन से ही सांसारिकता से विरक्त रहे ब्रह्मचारी जी ने तप को ही जीवन का लक्ष्य बना लिया। वे संस्कृत साहित्य का गहरा अध्ययन करते रहे। गांधीजी का आह्वान सुनकर पढ़ाई छोड़कर वे स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। अंग्रेजों के विरुद्ध आन्दोलनों में सक्रिय भाग लिया। फलस्वरूप उन्हें कठोर कारावास का दण्डश् भोगना पड़ा। भारत के स्वतंत्र होने पर राजनेताओं की विचारधारा से दु:खी होकर सदा के लिए राजनीति से अलग हो गए और झूसी में हंसस्कूल नामक स्थान पर वटवृक्ष के नीचे तप करने लगे। गायत्री महामंत्र का जप किया। वैराग्य भाव से हिमालय की ओर भी गए और फिर वृन्दावन आकर रहे।

श्री महाराज ब्रजभाषा के सिद्धहस्त कवि थे। उन्होंने सम्पूर्ण भागवत को महाकाव्य के रूप में छन्दों में लिखा था। “भागवत चरित’ कोश् ब्रजभाषा में लिखने का एकमात्र श्रेय श्री महाराज जी को ही है।

स्वतंत्र भारत में गो-हत्या होते देखकर ब्रह्मचारी जी को बहुत दु:ख हुआ। गो-हत्या निरोध समिति बनायी गई, उसके वे अध्यक्ष बने। सन्‌ १९६०-६१ में कश्मीर से कन्याकुमारी तक उन्होंने कई बार भ्रमण किया। सन्‌ १९६७ में गो-हत्या के प्रश्न को लेकर उन्होंने ८० दिन तक ्व्रात किया और सरकार के विशेष आग्रह पर अपना व्रत भंग किया। वे रा. स्व. संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी के भी निकट रहे। इसी बीच पं॰ जवाहरलाल नेहरू जब हिन्दू समाज विरोधी “हिन्दू कोड बिल’ लाए, तो मित्रों के प्रोत्साहन से ब्रह्मचारी जी चुनाव में खड़े हुए। आखिर नेहरू जी को हिन्दू कोड बिल को वापस लेना पड़ा। दक्षिण भारत की यात्रा के समय उन्होंने एक स्थान पर २६ फुट की हनुमान जी की प्रतिमा देखी तो वैसी ही एक विशालकाय प्रतिमा बनवाने का और उसे दिल्ली के आश्रम में दिल्ली के कोतवाल के रूप में स्थापित करने का संकल्प लिया। ब्रह्मचारी जी भारतीय संस्कृति के स्तम्भ रहे। भारतीय संस्कृति व शुद्धि, महाभारत के प्राण महात्मा कर्ण, गोपालन, शिक्षा, बद्रीनाथ दर्शन, मुक्तिनाथ दर्शन, महावीर हनुमान जैसे उदात्त साहित्य की रचना की। ब्रह्मचारी जी द्वारा दिल्ली, वृन्दावन, बद्रीनाथ और प्रयाग में स्थापित संकीर्तन भवन के नाम से चार आश्रम आज भी सुचारू रूप से चल रहे हैं।

उनका संकीर्तन में अटूट लगाव था। वृन्दावन में यमुना के तट पर वंशीवट के निकट संकीर्तन भवन की स्थापना की तो प्रयाग राज प्रतिष्ठानपुर झूसीमें अनेकानेक प्रकल्पों के साथ संकीर्तन भवन प्रतिष्ठित किया। वसंत विहार दिल्ली में संकीर्तन भवन में हनुमान जी की विशालकाय मूर्ति पधारने की योजना का संकल्प लिया, क्रियान्वित किया किन्तु मूर्ति 120 फुट ऊंची उनके निधन के पश्चात ही प्रतिष्ठित हो पाई। झूसीप्रवास में वर्षो उपवास के साथ गंगा मैया के जल में प्रविष्ट हो समाधिस्थ स्थिति में गायत्री महामंत्र का पारायण किया था। वृंदावन में वस्त्र के स्थान पर टाट का प्रयोग कर यमुना पार सहस्त्रों गायों को साथ लेकर गोचारण किया। पूज्य ब्रह्मचारी जी सिद्धांतों को आचरण में लाकर प्रस्तुत करने वाले प्रेरक व्यक्तित्व के धनी थे। एक बार गोरक्षाके प्रकरण पर वे वृंदावन में शासन के विरुद्घ आमरण अनशन पर बैठ गए। देश के लाखों लोग उनके साथ हो लिए। तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के आग्रह एवं आश्वासन पर ही उन्होंने रस-पान किया था। स्वाधीनता आंदोलन में वे पं.जवाहरलाल नेहरू के साथ जेल में रहे थे। स्वाधीनता संग्राम काल में उनकी पत्रकारिता बेजोड थी। उन्होंने कई पन्नों का संपादन तथा प्रकाशन किया एवं सदैव खादी का प्रयोग किया। पूज्य ब्रह्मचारी जी ने अपने कर्म, धर्म, आचरण एवं लेखनी के द्वारा समाज को जो कुछ भी दिया वह लौकिक परिवेश में अलौकिक ही है। वे आशु कवि थे। श्रीमद्भागवत, गीता, उपनिषद, ब्रह्मसूत्र आदि अत्यंत दुरूह ग्रंथों की सरल सुबोध हिंदी में व्याख्या कर भक्तवर गोस्वामी तुलसीदास के अनुरूप जनकल्याण कार्य किया। उन्होंने श्री भागवत को 118 भागों में जन सामान्य की सरल भाषा में प्रस्तुत किया। उनके रचित ब्रजभाषा के सुललित छन्द (छप्पय) बोधगम्यएवं गेय है, जिनका आज भी स्थान-स्थान पर वाद्य-वृंद संगति के साथ पारायण कर लोग आनंदित होते हैं। इनके अतिरिक्त नाम संकीर्तन महिमा, शुक (नाटक), भागवत कथा की वानगी, भारतीय संस्कृति एवं शुद्धि, वृंदावन माहात्म्य, राघवेंद्र चरित्र, प्रभु पूजा पद्धति, कृष्ण चरित्र, रासपंचाध्यायी, गोपीगीत, प्रभुपदावली, चैतन्य चरितावली आदि लगभग 100 अन्य आध्यात्मिक ग्रंथों का प्रणयन किया।

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