*श्री श्री गुरुदेव*
दृष्टांन्तो नैव दृष्ट्त्रिभुवनजठरे सद्गुरोर्ज्ञानदातु:
स्पर्शश्चेत्तरत्र कल्प्य: से नयति यदहो
स्वर्ण तामश्मसारम |
नश्पर्शत्वं तथापि श्रितचरणयुगे सदगुर: स्वीयशिष्ये
स्वीयं साम्यं विधत्ते भवति निरूपमस्तेन वाSलोकिकोSपि||
इस त्रिलोक मंडल में ज्ञान दाता सद्गुरु का कोई दृष्टांत नहीं देखा गया| यदि पारस को उनके सदृस्य माना जाए क्योंकि वह लोहे को स्वर्णत्त्व प्रदान करता है तब भी ठीक नहीं कारण कि वह उसे पारस तो नहीं बना पाता | किंतु सद्गुरु तो अपने चरणों का आश्रय लेने पर शिष्य को अपना सादृश्य प्रदान करते हैं इसलिए वह अनुपम और अलौकिक हैं | महापुरुषों के चरित्र निर्माण में वास्तव में उनके गुरुओं का बहुत बड़ा हाथ रहा है | जिज्ञासु शिष्य को ज्ञान प्रदान करके ज्ञानदाता गुरु के आसन पर बिठा देना सदगुरुदेव का ही काम है | ऐसी उदारता भला संसार में कहां मिलेगी | हमारे चरित नायक के जीवन पर गुरुदेव श्री सच्चिदानंद स्वामी के अलौकिक चरित्र की अमिट छाप पड़ी है | समय-समय पर जब आप उनकी चर्चा करने लगते हैं तो उनकी प्रशंसा करते हुए नहीं अघाते | उनके प्रति आपकी अटूट श्रद्धा है और यह श्रद्धा ही वह दिव्य गुण है जो शिष्य को अपने गुरुदेव की आध्यात्मिक संपत्ति का उत्तराधिकारी बनाती है | श्री गुरुदेव के विषय में मुझे विशेष बातें तो मालूम नहीं है तथापि कभी-कभी श्री महाराज जी के मुख से जो कुछ सुना है वही संक्षेप में यहां लिखता हूं श्री स्वामी जी महाराज पूर्ण ब्रह्मनिष्ठ और अलौकिक योग सिद्ध संपन्न महापुरुष थे | उनके विषय में ऐसा प्रसिद्ध था कि यह जिसकी ओर दृष्टि भर कर देख लेते हैं उसकी निर्विकल्प समाधि हो जाती है | बंगाल के सुप्रसिद्ध परमहंस देव श्री रामकृष्ण की भांति जिसको यह एक बार स्पर्श कर देते थे वही सर्वथा निष्पाप होकर समाधिस्त हो जाता था | तथा उत्थान काल में भी सर्वत्र ब्रम्ह दर्शन करते हुए उन्मत्त सा रहता था | यहां तक कि कोई कोई तो 6 महीने तक अपनी प्राकृत अवस्था में नहीं आया | कहते हैं एक बार श्री स्वामी जी विचरते हुए पंजाब प्रांत के किसी गांव में पहुंचे | और दोपहर को भिक्षा करने के लिए किसी वक्त के यहां गए वहां कई माईयां एकत्रित थीं | पंजाब की माइयों को तो सत्संग का संस्कार रहता ही है | उन्होंने आप के चमत्कारों की बहुत सी बातें सुनी हुई थी अतः उन में से एक ने कहा महाराज जी सुना है आप जिसको चाहे उसी को समाधि करा सकते हैं हमारे गांव में एक बुढ़िया माई है वह पढ़ी-लिखी साधन संपन्न और साधू सेवी भी है | उसने आजीवन साधु सेवा की है और जिस ने जो जो साधन बताए हैं उन्हें करते-करते बहुत थक गई है | तब भी उसे निर्विकल्प समाधि प्राप्त नहीं हुई अब वह बेचारी बहुत निराश हो गई है और किसी साधू या साधन में उसकी श्रद्धा नहीं रही है हम सब ने उसके सत्संग से बड़ा लाभ उठाया है इसलिए उसकी इस स्थिति में हमें भी बड़ा खेद है | कृपया आप अपना कुछ चमत्कार दिखा कर उसे फिर परमार्थ में लगा दें यह सब कह कर वह सब स्वामी जी के चरणों में गिर कर रोने लगीं | श्री स्वामी जी बड़े मनचले थे वह एकदम हंसते हुए उन सब को गालियां देने लगे और बोले अच्छा उसे हमारे पास बुला लाओ तब उनमें से एक माई ने जा कर उस बृद्धा से कहा चलो एक बड़े सिद्ध महात्मा आए हैं उन के दर्शन तो कर लो | वह क्रोध में भरकर बोली जाओ मैंने ऐसे कितने ही सिद्धों के दर्शन किए कोई सिद्ध विद्ध नहीं है सब ढोंगी है मेरा तो इनसे पेट भर गया है मैं तो अब आत्महत्या करने को बैठी हूं | जब उसने बहुत आग्रह किया तो वह वृद्धा रोने लगी और बोली तू यहां से चली जा मैं किसी साधू के दर्शन करने नहीं जाऊंगी वो बेचारी निराश होकर लौट गई और सारा हाल श्री स्वामी जी को सुना दीया | स्वामी जी ने कोई उत्तर नहीं दिया केवल मुस्कुराए और सत्संग की बातें करने लगे | पीछे वृद्धा के मन में कुछ पश्चाताप हुआ और उसने सोचा चलो मरना तो है ही महात्मा के दर्शन तो कर आऊं | किंतु लज्जा के कारण वहां न जाकर वह रास्ते में बैठ गई और और आड़ मैसे स्वामी जी को देखने लगी | इतने में एक माई ने उसे देख लिया और श्री स्वामी जी से कहा महाराज देखिए वह माई यह है | श्री स्वामी जी ने एक दृष्टि भर कर उसकी और देखा और कहा यह माई तो बहुत अच्छी है बस वह मूर्छित होकर धड़ाम से पृथ्वी पर गिर पड़ी और उसे वहीं निर्विकल्प समाधि हो गई | उसकी यह अवस्था देखकर सब माईया एकत्रित हो गई और उसे सचेत करने का प्रयास करने लगी किंतु वह होश में ना आई श्री स्वामी जी उसे गालियां देते हुए चल दिए ले और देखेगी साधुओं की ओर | और माइयों से कहा इसे संभाल कर रखना और कह देना कि खबरदार जो तू कभी हमारे पास आई | बुढ़िया 3 दिन तक उसी अवस्था में पड़ी रही जब उसे होश हुआ तो वह स्वामी जी कहां है मुझे उन के दर्शन कराओ बिना उनके दर्शन किए मेरे प्राण निकल जाएंगे इत्यादि प्रलाप करती रोने लगी उसे जैसे-तैसे थोड़ा दूध पिलाया गया और वह फिर समाधिस्थ हो गई | उसे जब व्युत्थान होता तो सब माईया श्री स्वामी जी के विरह में रोती हुई उसे कुछ खिलाती और वह फिर समाधिस्थ हो जाती | वहां से जाने पर 6 महीने तक श्री स्वामी जी का कोई पता न चला | फिर मालूम हुआ कि वह होशियारपुर में है तब कई माइयों के साथ बहुत सा प्रसाद सिर पर रख वह पैदल ही होशियारपुर को चल पड़ी | इस प्रकार 60 वर्ष की जराजर्जरित अवस्था मैं वह बालकों की तरह उछलती-कूदतीं प्रायः 20 मील तक बड़े आनंद से स्वामी जी के पास पहुंच गई | माई को देखते ही श्री स्वामी जी क्रोध में भरकर गालियां देने लगे और बोले कि हमने तो मना किया था फिर तू हमारे पास क्यों आई जा अभी उल्टे पांव अपने घर लौट जा इसी मे तेरी भलाई है यह हमें भी कहकर उन्होंने उसके प्रसाद की हांडी भी बाहर फेंक दी और उसे गाली निकालते डंडा लेकर आश्रम से बाहर निकाल आए |
महापुरुषों की बड़ी अलौकिक लीला होती है कभी कभी अपनी असंगता और निरपेक्षता को सुरक्षित रखने और भक्तों की श्रद्धा ओं को पुष्ट करने के लिए वेब बड़ा अटपटा आचरण दिखलाते हैं | बेचारी बुढ़िया क्या करती निराश होकर उल्टी लौट आई | उसके लिए तो उनके वचन श्रुति वाक्यों से भी बढ़कर थे | उनकी गालियां और फटकार उसे कृपा का भंडार जान पड़ते थे स्वामी जी का भी ऊपर से तो ऐसा कुटिलता का सा बर्ताव था किंतु भीतर से उनकी सुर मुनि दुर्लभ कृपा ही थी | इस अदभुत गुरु कृपा के विषय में संत शिरोमणि चरण दास जी कहते हैं |
चरण दास सद्गुरु के तन-मन दीजे वारि |
जो गुरु झिड़कें लाख तो मुख नाही मोडिये |
गुरु से नेह लगाए सवन सों तोड़िए |
माता ते हरि सौ गुनें, तिनते सौ गुरुदेव |
प्यार करें औगुन हरें, चरणदास सुन लेव |
काँचे भाड़े सों रहै,ज्यों कुम्हार को नेह |
भीतर सों रक्षा करें बाहर चोटें देय | |
बेचारी बुढ़िया अपना सा मुंह लेकर घर लौट आई किंतु उसकी प्रसाद की हांडी क्या फूटी मानो जन्म जन्मांतर की वासनाओं से भरी उसकी हृदय की चिज्जड़ग्रंथि ही टूट गई | वह कृतकृत्य हो गई उसका सारा साधन समाप्त हो गया और हृदय में आनंद का सागर हिलोरे लेने लगा | वह सदा के लिए आनंद सागर की मानो मीन बन गई | घर पहुंचते ही उसके होश-हवास कूच कर गए वह भजन में बैठते ही समाधि मग्न हो गई
| जब व्युत्थान हुआ तब श्री सतगुरुदेव की दया का अनुभव करके फूट फूट कर रोने लगी | अब उसे यही धुन थी कि न जाने ऐसा अवसर कब होगा जब मैं श्री सद्गुरु दयाल के दर्शन कर उनकी कुछ सेवा कर सकूंगी | धीरे-धीरे उसे कुछ सावधानी रहने लगी और एक महीना बीतने पर वह फिर बहुत सा सामान सिर पर रख कर पैदल ही होशियारपुर जा पहुंची | किंतु श्री स्वामी जी की तो वही रफ्तार बेढंगी जो पहले थी तो अब भी थी | उसने ज्यों ही श्री चरणों में प्रणाम किया और प्रसाद सामने रखा की महाराज जी आग बबूला हो गए और अनेकों गालियां देते बड़े डांट कर बोले तू क्यों आई जा अभी उल्टे पांव लौट जा | और उसका सारा प्रसाद उठा कर बाहर फेंक दिया | वाह रे मस्ताने तेरे स्वरूप को कौन समझे? और समझे क्या ऐसी बात तो जिस पर बीते वही जान सकता है | जाके पैर न फटी बिवाई सो क्या जाने पीर पराई | यह प्रेम पंथ बड़ा ही कठिन है | इसमें तो पथिक को ‘पग पग पर बरछी लगे श्वास श्वास में तीर |,
किसी प्रेम मार्ग के मर्मज्ञ ने कहा है-
प्रेम पंथ अति ही कठिन सब सों निबहत नाहिं |
चढ़िके मोम तुरंग पर चलिवो पावक माहिं |
वाह रे बांके बिहारी तेरी बांकी अदा तू किस रूप में क्या-क्या खेल खेलता है तू ही जाने बेचारी बुढ़िया क्या करती उसके लिए तो और रास्ता ही क्या था?
मेरी आजुर्द ;पर उसे कब गया आती है|
समझ रखा है जालिम ने फंसा दिल कब निकलता है | |
बस इस प्रेम दलदल में धंसा सो फंसा | अनंत जन्मों के पुण्यों से अथवा उस कृपा सागर की अहैतुकी कृपा से कोई बिरला भाग्यवान ही इस मार्ग में अग्रसर होता है | हमारे जैसे अभागों का तो इसमें प्रवेश ही नहीं हो सकता | हां उनकी अहैतुकी कृपा की आशा अवश्य है देखें कब कब कृपा होती है | बूढ़ी मां उल्टे पांव घर को चली मार्ग में वह पागल की तरह मदोन्मत्त सी होकर प्रेम रस में छकी जा रही थी | उसकी आंखें बंद है वह जब मार्ग भूलती है तो उसका chitchor जो उसके साथ ही है मानो उसे मार्ग दिखा देता है इस प्रकार जेसे तैसे घर पहुंची और वहां बैठते ही निर्विघ्नं समाधि | उत्थान हुआ तो सर्वत्र ब्रह्म दर्शन अथवा सगुण स्वरुप श्री गुरुदेव के दर्शन | आनंद की तरंग पर तरंग आ रही है इस प्रकार वह निरंतर भाव सागर में निमग्न रहने लगी | वह बदमाश इसी प्रकार प्रसाद लेकर जाती और तस्वीर गालियां खाकर उल्टे पांव लौट आती इस तरह बहुत दिनों तक स्वामी जी उसका तिरस्कार करते रहे | परंतु अंत में जय उसी की हुई इस बार वह ऐसा निश्चय करके चली कि अब वापिस नहीं लौटना है | हुआ भी यही श्री स्वामी जी ने अबकी बार उसे कुछ नहीं कहा बनाते ही उसे असम रहने के लिए एक स्थान दे दिया और सारे आश्रम की सेवा का भार उसे सोंपकर कहा खबरदार यहां ध्यान समाधि में मत बैठना | यदि ऐसा क्या तो तुझे यहां से निकाल देंगे हमारे यहां तो आश्रम की सेवा ही मुख्य है |
बूढ़ी मां निकाल दिए जाने के भय से दिन भर काम काज में लगी रहती | वह भंडारा चेता कर सबके लिए भोजन बनाती अतिथियों का सत्कार करती और श्री स्वामी जी को भोजन कराती फिर बर्तन साफ करती चौका लगाती और सायं काल में पुन: रसोई तैयार करती इस प्रकार सारे कामौ से निवृत्त होकर रात के 11:00 बजे सोती और 2:00 बजे उठकर स्वामी जी को जल देती कैसी कठोर तपस्या थी वह 2:00 बजे श्री स्वामी जी घूमने के लिए जंगल चले जाते तब वह ध्यानस्थ होकर बैठ जाती | किंतु गुरु सेवा का अद्भुत प्रभाव था इतने विक्षेप में भी उसे ध्यान में बैठते ही निर्विकल्पता प्राप्त हो जाती | प्रातकाल स्वामी जी के जंगल से लौटने से पहले ही वह उठकर जल लिए तैयार रहती | फिर दिनभर वही कार्यक्रम रहता | इस प्रकार बहुत समय तक जय सेवा कार्य चलता रहा | और इससे बूढ़ी मां की एकाग्रता भी उत्तरोत्तर बढ़ती ही गई कभी-कभी इतनी एकाग्रता बढ़ती कि स्वामी जी के लौटने तक उसे उत्थान ही न होता | तब उसे झकझोर कर सावधान करते| कभी तो बहुत हिलाने डुलाने पर भी उसे चेत नहीं होता था | आखिर जब स्वामी जी ने देखा कि इसकी अवस्था बहुत बढ़ गई है तो उसे सब काम काज से मुक्त कर दिया और आश्रमवासियों से कह दिया कि सब लोग उस की सेवा का ध्यान रखें |
कभी-कभी तो स्वयं स्वामी जी भी उसका कोई काम कर देते थे और कभी उसके साथ विचित्र खेल भी करते थे | 1 दिन की बात है बूढ़ी मां गुसलखाना में कपड़े रखकर स्नान कर रही थी स्वामी जी चुपचाप जाकर उसके कपड़े उठा लाए और उन्हें एक ओर रख दिया | बूढ़ी स्नान कर चुकी तो उसे वस्त्र दिखाई न दिए वह पुकारने लगी अरे राम मेरे कपड़े कौन ले गया | यह सुनकर स्वामी जी खूब हंसे और उसे गाली देते हुए बोले तूने वहां वस्त्र रखे भी थे या यों हीं रोला मचा रही है| देख रख तो यहां गई है और ढूंढती वहां है | इस तरह हम देखते हैं कि स्वामी जी महाराज का चरित्र अनेकों विचित्रताऔं से पूर्ण था किंतु एक चीज थी जो उनकी इन सारी विचित्रताओं में समान रुप से अनुस्यूत थी| यह थी उनकी अहैतुकी कृपा | श्री सद्गुरु कृपा सर्वथा स्वतंत्र है | वह किस पर किस समय किस रुप में अवतरित होती है | इसका कोई नियम नहीं है | वह पात्रापात्र का भी विचार नहीं करती और उसकी प्राप्ति का कोई साधन भी नहीं है | कृपा ही साधन है और कृपा ही साध्य है बूढ़ी मां पर तो इस कृपा की अनवरत वर्षा हुई | वह तो सब प्रकार उससे निहाल हो गई और प्रारब्ध शेष होने पर इस पार्थिव शरीर को छोड़कर सदा के लिए उस सद्गुरु कृपा में ही विलीन हो गई | बुढिया के भाग्य की कहां तक सराहना करें श्री स्वामी जी स्वयं कहा करते थे कि जो अवस्था इस बुढ़िया को प्राप्त है वह तो हमें भी नहीं मिली उसकी आध्यात्मिक शक्ति इतनी बढ़ गई थी कि उसे जो स्पर्श कर लेता था उसी भी समाधि जैसी अवस्था प्राप्त हो जाती थी | यह सब था केवल श्री सद्गुरु कृपा का प्रभाव | ऊपर की पंक्तियों से पाठकों को श्री स्वामी जी के विलक्षण सामर्थ और प्रभाव का तो कुछ परिचय मिल गया होगा | अब आगे संक्षेप में उनके जीवन का कुछ विवरण प्रस्तुत है | स्वामी श्री सच्चिदानंद जी गिरी का जन्म बिहार प्रांत में गया के आसपास किसी स्थान में हुआ था | वे संभलता कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे कहते हैं उनमें जन्म से ही कुछ विलक्षण सिद्धियां पाई जाती थीं | इनके मुख से जो बात निकल जाती थी वह तत्काल पूरी होती थी वे जिसे स्पर्श कर देते थे उसे ही एक अलौकिक आनंद का अनुभव होने लगता था योग इन में कुल परंपरागत था जब यह 3 वर्ष के थे तभी इनकी दादी इन्हें प्रातकाल 4:00 बजे ही जगा देती थी और कहती थी कि बेटा तुम संसार में सोने के लिए नहीं आए हो उठो और भगवान का भजन करो |
इनकी माताजी जी भी मदालसा की भांति इन्हें बाल्यकाल से ही तत्वज्ञान में प्रवत करती थीं | इस प्रकार प्रातः काल बहुत सवेरे उठकर भगवत भजन में बैठने का तो इन्हें आरंभ से ही अभ्यास था और तत्व अनुसंधान की प्रवृत्ति भी इन्हें मातृस्तनों से ही प्राप्त हुई थी |
इनके गुरु स्वामी ब्रम्हानंद जी एक सिद्ध महात्मा थे एक बार बे अवधूत दत्तात्रेय की तरह विचरते हुए इनके गांव में पहुंचे | एक सिद्ध महापुरुष का आगमन सुनकर अनेकों नर-नारी उनके दर्शनों के लिए आए उस समय इन की अवस्था पर आया 10 साल की थी | आप अपनी दादी के साथ गए और ज्यों ही उनके चरणों में प्रणाम किया कि सदा के लिए उन्हें आत्मसमर्पण कर दिया | एक नन्हे बालक की ऐसी विनम्रता देखकर महात्मा जी प्रसन्न हो गए और बोले बेटा तू क्या चाहता है इन्होंने कहा बाबा मुझे भी अपना सा बना लो | महात्मा ने एक गहरी नजर से इनकी और देखा और कहा बच्चा तू तो मुझसे भी बढ़ चढ़कर होगा तुझे तो जन्म से ही सिद्धि प्राप्त है ऐसा कहकर उन्होंने जो ही इनके सिर पर हाथ रखा कि यह समाधिस्थ हो गए | जब बहुत यत्न करने पर भी इन्हें व्युत्थान न हुआ तो श्री स्वामी जी ने इनकी दादी से कहा तुम चिंता मत करो इसका परम कल्याण होगा और यह तुम्हारे कुल को भी पवित्र कर देगा अब तुम घर चली जाओ हम सावधान होने पर इसे घर भेज देंगे दादी घर चली आई इन्हें जब चेत हुआ तो यह गुरु चरणों से लिपट गए महात्मा जी ने इनसे घर जाने को कहा परंतु यह अब उन्हें छोड़ना नहीं चाहते थे तब वह बोले मैंने तुम्हारी दादी को वचन दिया है | यदि तुम नहीं जाओगे तो मेरा वाक्य झूठा हो जाएगा इसलिए अब तो तुम जाओ पीछे उनकी अनुमति लेकर हमारे पास आ जाना | मैं अमुक स्थान पर तुम्हें मिल जाऊंगा तब यह घर गए और किसी प्रकार घरवालों को प्रसन्न कर उनकी अनुमति ले सदा के लिए घर छोड़कर श्री गुरु चरणों में उपस्थित हो गए | गुरुदेव के साथ रहकर उन्होंने खूब अभ्यास किया यह रात्रि को एक 2:00 बजे ही उठ कर स्नान आदि सेनिवृत्त होगीले वस्त्रों से ही ध्यान में बैठ जाते थे | थोड़े ही दिनों में इन्हें 6 घंटों की समाधि लगने लगी और धीरे-धीरे इनकी वृत्ति और भी गाढ हो गई प्रायः 2 वर्षों में सद्गुरु कृपा से इन्हें भगवान के सगुण और निर्गुण दोनों स्वरूपों का साक्षात्कार हो गया | जब स्वामी जी ने देखा कि इन की अवस्था सब प्रकार परिपक्व हो गई है तो इन से कहा अब तुम शास्त्र अध्ययन करो बिना शास्त्र ज्ञान के पूर्णता नहीं आती महात्मा को ब्रह्मनिष्ठता के साथ क्षेत्रीयत्व भी संपादन करना चाहिए | वह बोले भगवान शास्त्र का फल तो आपकी कृपा से प्राप्त हो गया अब शास्त्र में माथापच्ची करने की क्या आवश्यकता है किंतु स्वामी जी ने कहा नहीं हमारी आज्ञा मानकर तुम खूब शास्त्र अध्ययन करो | फिर इन्हें साथ लेकर विकास इ आई यहां विश्वनाथ जी के पास सरस्वती फाटक में श्री गोविंदानंद कान्हानंद का एक छोटा सा मठ था उसके महंत जी छहों दर्शन के पूर्ण पंडित थे श्री स्वामी जी ने इन्हें उनके पास छोड़ दिया कहते हैं इन्होंने निरंतर 12 वर्ष वहीं रह कर खूब शास्त्र अभ्यास किया अध्ययन काल में भी इन्हें अनेकों चमत्कारपूर्ण अनुभव हुए उनमें से कुछ अनुभव का उल्लेख यहां प्रस्तुत है | एक दिन यह रात्रि में मणिकर्णिका घाट पर स्नान कर के ध्यान में बैठे थे | किसी एक महात्मा ने इन्हें जगाया और कुछ देर तक इनसे सत्संग की बातें कि जब वे चलने लगे तो विवस होकर उनके पीछे-पीछे होली उन्हों ने हंसकर कहा क्या हमारे आश्रम पर चलोगे यह बोले हां इस पर उन्होंने कहा अच्छा चले आओ डरना मत ऐसा कहकर वह गंगा जी में कूद पड़े और यह किनारे पर खड़े रह गए महात्मा न जाने कहां चले गए इसका इन्हें पश्चाताप भी हुआ परंतु उस समय उनका कोई पता नहीं चला | इसके कुछ दिनों बाद जब यह श्री विश्वनाथ जी के दर्शनों के लिए मंदिर में गए तो कुछ दूसरे वेश में इन्हें फिर उन्हीं महात्मा का दर्शन हुआ किंतु यह उन्हें पूर्णतया पहचान न सके तब उन्होंने हंस कर कहा वह स्वामी जी तुम उस दिन हमारे आश्रम में खूब गए तुमने हमें अच्छा धोखा दिया तब इन्हें निश्चय हुआ कि यह वही महात्मा है और उनसे प्रणाम करके कहा अच्छा महाराज जी चलिए आज मैं चलूंगा कृपया यह तो बताइए कि आप कौन हैं तब उन्होंने बताया मैं कपिल हूं मेरा आश्रम पाताल में है फिर उन्होंने कुछ सिद्धियों का वर दिया गोस्वामी तुलसीदास ने ठीक ही कहा “जिमिं सुख संपति बिनहिं बुलाए धर्मशील पहं जाए सुहाए | , एक समय की बात है कि यह छुट्टी के समय अपने एक सहपाठी के साथ गंगातट अस्सी की ओर गए |
दोनों ही विरक्त थे पैसा पास नहीं रखते थे और ना कुछ सामान ही रखने का स्वभाव था घूमते घूमते रात हो गई तो यह गंगा तट पर ही जंगल में एक सामान्य से शिव मंदिर में पड़ गए किंतु इस समय दोनों ही को बड़े कड़ाके की भूख लगी हुई थी उनके साथी ने कहा तुम तो बड़े सिद्ध हो सिद्ध के बल पर कुछ खिलाओ तब जाने | यह सुन कर हंस पड़े और बोले भाई यहां जंगल में क्या रखा है | इतने में लंबी लंबी जटा वाले दो महात्मा इनकी ओर आते दिखाई दिए और के हाथ में एक दोना था उसे इन के आगे रहकर उन्होंने प्रणाम किया और इन दोनों ने भी प्रणाम किया महात्माओं ने बड़े प्रेम से कहा आप लोग यहां पधारे इससे हमारा आश्रम पवित्र हो गया और हम भी कृतार्थ हुए ऐसा कहकर वह चले गए इस दोने में केवल 5:00 पेड़े थे उन्हें देखकर लिए विचार में पड़ गए की भूख तो खूब लगी है और पेड़े 5:00 ही हैं तथा एक दूसरे से आग्रह करने लगे कि तुम यह पेड़ खा लो इतने में मंदिर के ऊपर से आवाज आई कि चिंता मत करो तुम दोनों पेट भर खा लो यह पेड़ समाप्त नहीं होंगे या सुनकर यह चकित हो गए और जाना कि वे कोई सिद्ध पुरुष थे| बस दोनों मित्र एक-एक पेड़ा उठाकर खाने लगे और बराबर खाते रहे इस प्रकार भरपेट पेड़े खाने पर भी दोनें में 5 पेड़े ज्यों के त्यों रहे | प्रातः काल होने पर आश्रम में आए और वहां भी सैकड़ों हजारों आदमियों को पेड़े बांटे किंतु वह पांच के 5:00 ही रहे | अंत में वह दोना श्री गंगा जी में छोड़ दिया | इसी प्रकार आपको और भी कई बार सिद्ध महापुरुषों के दर्शन होते रहते थे इसी बीच में आपको श्री विश्वनाथ जी और मां अन्नपूर्णा के बीच साक्षात दर्शन हुए | कभी-कभी यह स्वयं भी कुछ चमत्कार दिखा देते थे यद्यपि स्वभाव तक यह अपने को बहुत छुपाए रहते थे तो भी कभी कभी कोई विचित्र लीला हो ही जाती थी इनके विद्या गुरु एक वृद्ध पंडित जी थे वह बड़े शांत और सौम्य प्रकृति के संतोषी ब्राह्मण थे उनकी कन्या विवाह के योग्य हो गई थी किंतु धन का उनके पास सर्वथा अभाव था एक संभ्रांत कुल की कन्या का विवाह उस समय भी 200 से कम में होना संभव नहीं था किंतु पंडित जी के आजीविका सेतो किसी प्रकार से कुटुंब का भरण-पोषण ही हो पाता था | संग्रह के नाम पर उनके पास कुछ भी नहीं था इसलिए वह बहुत चिंतित रहते थे | गुरु जी को विशेष चिंताग्रस्त देख कर एक दिन आपने उसका कारण पूछा किंतु एक विरक्त शिष्य से इस विषय में कुछ कहना उचित न समझ उन्होंने टाल दिया अंत में जब इन्होंने बहुत आग्रह किया तो पंडित जी ने सब परिस्थिति बतला दी | बात सुनकर स्वामी जी हंस पड़े और बड़े विश्वास के साथ बोले हुआ महाराज जी यह भी कोई चिंता की बात है | “यो Sसौ विशंम्भरो देव:. स भक्तान किमुपेक्षते | भगवान स्वयं आपका काम करेंगे | स्वामी जी कितना कह कर चले गए किंतु इससे पंडित जी की चिंता कैसे शांत हो सकती थी देने के लिए तो स्वामी जी के पास फूटी कौड़ी भी नहीं थी पढ़ते पाठशाला में रहते मठ में और भोजन करते माधुकरी भिक्षा करके | किंतु इन में कुछ जन्मजात सिद्धियां तो थी ही कुछ लोग इन में बहुत श्रद्धा भी रखते थे ऐसी ही श्रद्धालु एक बुढ़िया माई थी वह बहुत धनाढ्य थी | भजन साधन में भीग उसकी अच्छी अभिरुचि थी तथा महात्माओं के सत्संग से उसे वेदांत के संस्कार भी पड़ चुके थे | किंतु अभी तक उसे आत्मसाक्षात्कार नहीं हुआ था इसके लिए वह लालायित भी बहुत रहती थी यह महाशय मनचले तो थे ही कभी-कभी यह कहकर कि अच्छा आज हमें अमुक चीज खिलाओ तो तुम्हें साक्षात्कार करा देंगे उसे चिढ़ाया करते थे | इनकी ऐसी छेड़छाड़ बहुत दिनों से चल रही थी वहीं पर हार्दिक श्रद्धा और प्रकार वात्सल्य प्रेम रखती थी उसकी याद आते ही यह मन ही मन हंसने लगे कि चलो यह काम वही बनेगा |
बस यह सीधे बूढ़ी मां के पास जाकर बोले मां यदि मैं तुझे आत्म साक्षात्कार करा दूं तो तू मुझे क्या देगी | बुढ़िया ने समझा यह तो मुझे यूं ही चलाया करते हैं जो जला कर बोली तुझे जो कुछ खाना है खा ले मुझे क्यों तंग करता है किंतु जब इन्होंने उस की शपथ करके कहा तो उसे विश्वास हुआ और वह बोली आत्मसाक्षात्कार के आगे तो त्रिलोकी की संपत्ति भी कुछ है मैं तुझे यह सारी संपत्ति और धरवार सकती हूं स्वामी जी बोले हमें तेरी सारी संपत्ति लेकर क्या करना है तू ठीक ठीक हमें बता कितने रुपए देगी | बुढ़िया ने समझा यह तो नित्य की तरह ठट्टा ही करता है रुपए तो इसने कभी नहीं मांगे और न यह पैसा रखता ही है अतः चिढ़ कर बोली अच्छा तुम्हें रुपए लेने है तो थोड़ी देर ठहर मैं अभी लाती हूं देख भाग मत जाना | यह कहकर वह भीतर गई और एक हजार की थैली उठा लाई उसे सामने रखकर बोली लो बेटा इसके साथ ही मैं तुम्हें आत्मसमर्पण भी करती हूं | इन्होंने थैली में से गिन कर दो सौ रुपए निकाले और उन्हें लेकर भागे तथा बुढ़िया को अंगूठा दिखा कर बोले ले कर ले आत्मसाक्षात्कार | इस पर बुढ़िया लाठी लेकर इनके पीछे झपटी और देहली की ठोकर खाकर ज्यों ही गिरी निर्विकल्प समाधि में स्थित हो गई घर वालों ने देखा तो उन्हें एकदम अचेत मिली | यह हजरत तो ₹200 लेकर एक दो तीन हुए और रात्रि को पंडित जी के घर जाकर चुपचाप उनके बिस्तर के नीचे रख आए| प्रातः काल जब पंडित जी ने बिस्तर झाड़ा तो उसमें से रुपए निकले उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ और वह भगवान को धन्यवाद देने लगे | फिर विद्यार्थियों को बुलाकर पूछा तो सब ने साफ इंकार कर दिया जब स्वामी जी पढ़ने के लिए आए तो इनसे भी चर्चा की आप बड़ी गंभीरता से बोले इसमें आश्चर्य की क्या बात है भगवान की लीला अचिंत्य है उन्होंने आपको चिंतित जानकर कहीं से भेज दिए हैं पंडित जी ने बार-बार भगवान को धन्यवाद दिया और आनंद से कन्या का विवाह कर दिया | दूसरे दिन जब स्वामी जी भिक्षा के समय गुड़िया के घर गए तो उसे उसी तरह समाधिस्थ पाया तब उन्होंने अपनी संकल्प सक्से उसे सचेत किया बुढ़िया ने अपने संतसतगुरुदेव को सामने देख साष्टांग प्रणाम किया और सदा के लिए आत्मसमर्पण कर दिया तो आप हंस कर बोले वाह री मां मुझे तो भूख लगी है और तू यह क्या स्वांग रच रही है | वृद्धा ने कहा अब आप मुझसे छिप नहीं सकते अब तो पकड़े गए उन्होंने उसे बहुत तेरा बहकाया परंतु उसने नमाना तब आप बड़ी गंभीरता से बोले देखो सावधान यह बात किसी से न कहना नहीं तो मुझे पढ़ना छोड़ कर काशी से भागना पड़ेगा बूढी ने कहा मैं किसी से नहीं कहूंगी इस प्रकार सदा सदा के लिए कृतकृत्य हो गई और उसने अपनी सारी संपत्ति भी गरीबों को बांट दी | आपकी विद्यार्थी जीवन की ऐसी ही एक घटना और भी है इनके दूसरे अध्यापक बड़े विद्वान साधन संपन्न और वेदांत में रुचि रखने वाले थे किंतु जन्मभर साधन करते रहने पर भी उन्हें आत्मसाक्षात्कार नहीं हुआ था आखिर निराश होकर वह साधन छोड़ बैठे थे | वह कभी-कभी इन के साथ जंगल में घूमने के लिए जाया करते थे एक दिन उन्होंने जंगल में पहुंचने पर उनसे कहा आइए पंडित जी आज कुछ देर अभ्यास में बैठे हैं या सुनकर पंडित जी रो पड़े और बोले बस भाई मेरा अभ्यास तो अब चिता में ही होगा स्वामी जी ने कहा नहीं पंडितजी निराश कभी नहीं होना चाहिए भगवान वांछा कल्पतरु है वह चाहे तो एक क्षण भर में निहाल कर दें राजा खटवांग को तो ढ़ाई घड़ी में ही आत्म साक्षात्कार हो गया था और महाराज जनक को तो एक क्षण में ही उस परम पद की प्राप्ति हो गई थी इस प्रकार बहुत आग्रह करके आपने पंडित जी को बिठाया और एक और आप भी बैठ गए किंतु आज तो पंडित जी को दूसरे ही प्रकार का अनुभव हुआ | उनकी वृत्ति एक दम चढ़ गई मानो किसी दिव्य शक्ति ने उनकी कुंडलिनी शक्ति को जागृत कर दिया हो और वह सहसा सब चक्रों का भेदन करती दशम द्वार तक पहुंच गई हो इस प्रकार पंडित जी को अकस्मात निर्विकल्प समाधि हो गई इस स्थिति में 3 घंटे बीतने पर श्री स्वामी जी ने ही अपने संकल्प से उन्हें व्युत्थान कराया सावधान होने पर वह स्वामी जी के चरण पकड़ कर खूब रोए और उन्होंने अश्रु जल से ही अपने संत सदगुरु के चरण पखारे | परंतु स्वामी जी एकदम चकित होकर पीछे हट गए और बोले पंडित जी मैं तो आपका शिष्य हूं आप मुझे अपराधी क्यों बनाते हैं पंडित जी ने कहा स्वामी जी अब आप मुझसे छिप नहीं सकते मैंने आपको अच्छी तरह पहचान लिया आपने प्रत्यक्ष दिव्य रुप से मेरे अंतकरण में प्रवेश करके मेरी अधोमुखी कुंडली शक्ति को जगाया और संपूर्ण चक्रों का भेदन करा कर उसे दशम द्वार तक पहुंचाया है आप तो भस्म से ढके हुए अंगारे की तरह छिपे हुए जन्मसिद्ध हैं | विद्याध्ययन आज तो आप की लीला मात्र है जब स्वामी जी ने देखा कि पकड़े गए तो अपनी गंभीरता से गिड़ गिड़ाते हुए कहा अच्छा कृपा करके यह बात किसी से कहें नहीं अन्यथा मेरा विद्याभ्यास और काशी वास छूट जाएगा | पंडित जी ने प्रतिज्ञा की कि मैं किसी से नहीं कहूंगा इससे कुछ दिनों बाद उन्होंने संन्यास ले लिया और निरंतर अभ्यास करते हुए जीवन मुक्ति का आनंद लूटने लगे | इस प्रकार प्रायः 12 वर्ष तक व्याकरण न्याय और वेदांत आदि शास्त्रों का खूब अध्ययन कर आप अवधूत वृत्ति से बिचरने लगे | आप केवल एक चादर और कॉपीन ही रखते थे | शीतकाल में भी रात्रि को 1:00 या 2:00 बजे किसी नदी या ताल में स्नान कर चादर तो सुखा देते थे और भीगी कौपीन पहने ध्यान में बैठ जाते थे इस तरह ठीक मध्यान्ह तक बैठे रहते| फिर माधू करी वृत्ति से भिक्षा लेकर जहां मिलती वहीं खड़े खड़े खा लेते | और फिर जंगल में जाकर कुछ देर विश्राम करके पुनः ध्यानस्थ हो जाते इस प्रकार प्रायः 12 वर्ष तक असंग भाव से विचरते हुए आप ने खूब अभ्यास किया और अंत में होशियारपुर आकर रहने लगे| आप जिस काम में लगते थे उसी में अपने को पूरा-पूरा लगा देते थे काशी में अध्ययन करते समय आप मठ की सब प्रकार की सेवा करते थे वहां लंगर चलता था उसमें बड़े-बड़े बर्तन मांजना जल भरना चौका लगाना झाड़ू देना इत्यादि सभी कामों में आप हाथ बटाते थे आपको सफाई बहुत पसंद थी | होशियारपुर आश्रम मैं रहने वालों से आप कहा करते थे सफाई ही खुदाई है तुम जितनी आश्रम की सफाई रखोगे उतना ही तुम्हारा अंतःकरण शुद्ध होगा | हमें जो कुछ मिला है सफाई से ही मिला है | सेवा धर्म के कारण आपका देश बहुत बड़ा चला था जिस पर आपकी दृष्टि पड़ी वही एक नजर से घायल हो गया | आपको हर किसी का साधु होना पसंद नहीं था आप कहा करते थे कि साधु हो ना तो एकदम संसार से मरना है आप बाल ब्रहमचारी और सच्चे व्यायाम शील थे | अतः आप का शरीर सर्वांग सुंदर सुगठित और स्वस्थ था | आपको जीवन में कभी कोई रोक नहीं हुआ किंतु देव बड़ा प्रबल है परारंभ तो सभी को भोगना पड़ता है इस आपको जीवन में कभी कोई रोक नहीं हुआ किंतु देव बड़ा प्रबल है प्रारंभ तो सभी को भोगना पड़ता है इस प्रारंभ की प्रेरणा ही वृद्धावस्था में आपकी गर्दन के पीछे एक फोड़ा हुआ | और परमहंस रामकृष्ण की भांति वही आपकी देह लीला संवरण का कारण हुआ | आपका यह फोटो बहुत दिनों रहा किंतु उस से महान कष्ट होने पर भी आप की स्थिति में कोई अंतर नहीं आया बड़े-बड़े डॉक्टरों का इलाज हुआ | वह लोग आपसे बैठने और बोलने के लिए मना करते थे किंतु जब कोई योग्य अधिकारी आता तो आप उठ कर बैठ जाते और उसे यथोचित उपदेश भी करते थे | कभी-कभी आप घंटों निर्विकल्प समाधि में बैठे रहते उसी हालत में डॉक्टर लोग आपके फोड़े की सफाई और मरहम पट्टी भी कर देते थे | आपको इसका कुछ पता भी न लगता था | जब समाधि टूटती और भक्त जन आपको अनुनय-विनय करके लेटाते तो आपको फोड़े की याद आती | उस समय कभी कभी आप बालक की भांति रो भी देते थे | एक दिन एक भक्त ने पूछा महाराज जी आपको या फोड़ा क्यों हुआ तब आप बोले भाई प्रारब्ध का भोग है कुछ मेरा प्रारब्ध है और कुछ उन शरणागत भक्तो का जिन्हें मैंने दृष्टि मात्र से समाधि प्राप्त करा दी है | आखिर उनके समाधि के प्रतिबंधक कर्म का भोग भी किसी को करना ही पड़ता | वह सब इकट्ठा होकर ही यह फोड़ा बना है सो यह शरीर भोग कर शांत कर देगा मैं तो प्रत्येक अवस्था का साक्षी ही हूं सुख भी आता है और दुख भी किंतु मेरा उनसे क्या संबंध में तो उन्हें प्रकाशित करने वाला ही हूं | आखिर उसी फोड़े के द्वारा आपकी शरीर यात्रा समाप्त हुई कहते हैं महाप्रस्थान के 2 घंटे पहले आप उठ कर सीधे बैठे और समाधिस्त हो गए थे उससे पहले आपने कह दिया था कि अब हम उठेंगे नहीं 24 घंटे बीत ने पर इसी आश्रम में इस शरीर को समाधि दे देना बस ऐसा ही हुआ जब 24 घंटे बीत ने पर भी व्युत्थान ना हुआ तो भक्तों ने निराश होकर आपका अंतिम संस्कार कर आपके पूर्ण शरीर को आश्रम में समाधिस्त कर दिया पीछे वहां एक समाधि मंदिर भी बना दिया गया यह सच्चिदानंद आश्रम आज भी भक्त जनों को आपकी पुण्य स्मृति कराता है आज भी उस में लंगर सत्संग साधु सेवा और भजन कीर्तन आज की व्यवस्था है | तथा बाबू भक्तों को भावना द्वारा आज भी श्री महाराज जी के दर्शन होते हैं यद्य
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